रविवार, 28 मार्च 2010

वो शायद दीवाना था 

वो एक पागल लड़का
जो शायद दीवाना था
अक्सर मेरी गलीयों में
वो बेमतलब घूमा करता था
देखकर मुझे दरीचे में खड़ा
वो अक्सर मुस्कुराया करता था

शाम को छत पर आकर वो
मेरा नाम लिखी पतंगे उड़ाता था
ना जाने खाली सफहों पर
कुछ लिखता और खुद ही पढ़कर
मन ही मन जैसे शरमाया करता था
वो एक पागल लड़का
जो शायद दीवाना था

मुझसे मिलने की वो
अक्सर कोशिश करता था
पर मेरे सामने आते ही वो
ना जाने कहाँ छुप जाता था
वो एक पागल लड़का
जो शायद दीवाना था

मैं उसकी हर बात पर
हंस कर रह जाया करती थी
मेरे हंसने पर वो ना जाने क्यों
कुछ खोया खोया सा हो जाता था
वो एक पागल लड़का
जो शायद दीवाना था

एक अरसा बीत गया
वो अब दिखाई नहीं देता
मैं उसे अक्सर याद करती हूँ
ना जाने वो कहाँ खो गया
अक्सर उसकी बातें और
वे छोटी मुलाकातें याद करती हूँ

उसका वो मासूम चेहरा
अब भी मेरी आँखों में रहता है
कहती है मेरी सब सहेलीयां
वो मुझसे प्यार करता था
वो एक पागल लड़का
जो शायद दीवाना था 

लेकिन ना जाने वो क्यों
कुछ भी कहने से डरता था
अब अक्सर सोचती रहती हूँ
वो ऐसा क्यों करता था
वो एक पागल लड़का
जो शायद दीवाना था 


1 टिप्पणी:

Unknown ने कहा…

मुझे याद आया. मेरे कॉलेज के ज़माने में हमारे एक दोस्त के साथ लगभग ऐसा ही वाकया हुआ था. मुझे एक बार ऐसा लगाजैसे मैं उसी लड़के की आपबीती पढ़ रहा हूँ. दिल को छु लेने वाले शब्द हैं. बड़ी अच्छी नज़्म है.
कहती है मेरी सब सहेलीयां
वो मुझसे प्यार करता था