वे नहीं लौट कर आनेवाले
चाहे भर ले आंखों में आंसू
चाहे दिल से आवाज़ लगा ले
दिल तोड़ कर जो गए हैं
वे नहीं लौट कर आनेवाले
चाहे लिख दे लाख संदेशे
चाहे हर मोड़ पर राह तक ले
जो गुजर गए हैं उन राहों से
वे नहीं लौट कर आनेवाले
चाहे खुदा से फरियादें कर ले
चाहे खुद को बरबाद कर ले
जो बसा चुके अपनी अलग दुनिया
वे नहीं लौट कर आनेवाले
चाहे मंदिर में दिए जला ले
चाहे सब कुछ न्यौछावर कर दे
जो हो गए हैं किसी और के
वे नहीं लौट कर आनेवाले
चाहे रिश्तों की याद दिला दे
चाहे वफाओं का वास्ता दे दे
जो हो बेवफा कहीं चल दिए है
वे नहीं लौट कर आनेवाले
चाहे फिर महफिलें सजा ले
चाहे फिर शम्मा जला ले
जो डरते हैं जलने से नाशाद
वे नहीं परवाना बननेवाले
सोमवार, 31 मई 2010
शनिवार, 29 मई 2010
अब हमें चुप नहीं रहना है
अब हमें चुप नहीं रहना है
हम सब का यह कहना है
हम भारतीयों का यह कहना है
जो भी नफरत फैला रहे हैं
उनको अब सबक सिखाना है
जो भी आपस में लड़ा रहे हैं
उनको बेनकाब अब करना है
जो भी गरीबों का खून चूस रहे हैं
उन्हें खून की कीमत बताना है
अब हमें चुप नहीं रहना है
हम सब का यह कहना है
हम भारतीयों का यह कहना है
जो निर्दोषों को मार रहे हैं
उन्हें सूली पर चढ़ाना है
जो खून की नदीयाँ बहा रहे हैं
उन्हें गंगा का महत्व बताना है
जो मजहब को बदनाम कर रहे हैं
उन्हें मजहब का मतलब बताना है
जो नहीं समझते प्रेम की भाषा
उन्हें दूसरी भाषा में समझाना है
अब हमें चुप नहीं रहना है
हम सब का यह कहना है
हम भारतीयों का यह कहना है

जो जाति के नाम पर बाँट रहे हैं
जो बेहिसाब भ्रष्टाचार कर रहे हैं
जो देश की दौलत को खा रहे हैं
जो जनता को धोखा दे रहे हैं
उन सब को अब चेताना है
यह सब अब बंद करवाना है
हम सब का यह कहना है
हम भारतीयों का यह कहना है
इस देश की शान बढ़ाना है
इसे सबसे आगे ले जाना है
इसे एक मिसाल बनाना है
इसे फिर सोने की चिड़िया बनाना है
इसे फिर देवभूमि बनाना है
हम सब का यह कहना है
अब हमें चुप नहीं रहना है
हम भारतीयों का यह कहना है
जो भी गरीब का खाना छीन रहे हैं
जो देश की दौलत को लील रहे हैं
जो देश की अस्मिता से खेल रहे हैं
उन्हें असली जगह पर भेजना है
उन्हें उनकी औकात बताना है
उन्हें अपनी ताकत बताना है
अब हमें चुप नहीं रहना है
हम सब का यह कहना है
हम भारतीयों का यह कहना है
हम सब को अब एक हो जाना है
हमें धर्म के नाम पर नहीं लड़ना है
हमें जातियों में नहीं बंटना है
हमें प्रान्तों में नहीं बंटना है
हमें भाषाओं में नहीं बंटना है
हमें भारतवासी बनना है
हमें भारतवासी बनना है
हमें धर्म के नाम पर नहीं लड़ना है
हमें जातियों में नहीं बंटना है
हमें प्रान्तों में नहीं बंटना है
हमें भाषाओं में नहीं बंटना है
हमें भारतवासी बनना है
हमें भारतवासी बनना है
शुक्रवार, 28 मई 2010
तलाशती है आँखें
बीते लम्हे भूली बिसरी यादें
यही सब तलाशती है आँखें
अपनों की भीड़ में अक्सर
ख़ुद को तलाशती है ऑंखें
खुशीयाँ तलाशती है आँखें
तन्हाईयों खामोशियों में
आवाजें तलाशती है आँखें
हर बेगाने चेहरे में
अपनों को तलाशती है आँखें
बंद पड़े उस दरीचे में
किसी को तलाशती है आँखें
सूनी हो चुकी गलियों में
बिछुडे यार तलाशती है आँखें
हैवानों की इस दुनिया में
इंसान तलाशती है ऑंखें
दम तोड़ती हुई जिंदगी में
साँसें तलाशती है आँखें
टूटते हुए सभी रिश्तों में
करीबीयाँ तलाशती है आँखें
शाम ए ग़ज़ल है यारों
मंगलवार, 25 मई 2010
यह रचना भी मेरे दिल के बहुत करीब है. इसका कारण एक सच्ची घटना है. घटना करीब चार साल पुरानी है. मैं गर्मी की छुट्टीयों में जोधपुर गाया हुआ था. उन दिनों ही इस रचना की पहली पंक्ति का जन्म हुआ था. यह रचना बहुत ही अजीब हालात में मैंने लिखी थी. मेरा कॉलेज के ज़माने का मित्र करीब बीस साल बाद मुझसे मिला. हम दोनों की ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा. कोई भी अंदाजा लगा सकता है कि जब दो दोस्त इतने लम्बे अरसे के बाद मिल रहे हो तो कैसा माहौल हो जाता है. अपनी पुरानी बातों को याद किया. फिर जब मैंने उससे यह पुछा कि घर में सब कैसे हैं तो उसका जवाब सुनकर मैं हैरान रह गया. उसने कहा कि वो अकेला ही है और शादी नहीं हुई है. बहुत कुरेदने के बाद उसने सारी बात बताई. उसने बताया कि उसकी पहचान एक लड़की से हुई थी. दोनों अक्सर आमने सामने आ जाते. यह सिलसिला काफी दिनों तक चलता रहा. उस लड़की के चेहरे से ऐसा लगने लगा था जैसे वो उसे कुछ कहना चाहती है लेकिन मेरे इस दोस्त को उसका चेहरा पढना नहीं आया. मेरे मित्र की जयपुर में नौकरी लग गई और वो वहां चला गया करीब दो साल बाद जब वो वापस लौटा तो उसकी ममेरी बहन से यह पता चला कि वो लड़की उससे प्यार करती थी और इजहार करना चाहती थी लेकिन मेरे मित्र की बेरुखी या नासमझी से वो यह सब कह नहीं पाई. उस लड़की ने अपने घरवालों से यह बात बताई लेकिन लड़का दूसरी जाति का होने कि वजह से यह रिश्ता नामंजूर कर दिया गया. उस लड़की की शादी उसकी मर्जी के खिलाफ कहीं और कर दी गई. उस लड़की ने यह सारी बात मेरे मित्र की ममेरी बहन को शादी के बाद बताई. मेरे मित्र की ममेरी बहन का ससुराल भी उदयपुर था जहाँ उस लड़की की शादी हुई थी. जब मेरे मित्र को यह सारी बात पता चली तो उसे जबरदस्त धक्का लगा. वो कई दिन तक गुमसुम रहा और उसे अपनी नासमझी पर बहुत गुस्सा भी आया वो बहुत पछताया लेकिन अब वो कुछ नहीं कर सकता था. उसे खुद भी यह अंदाजा नहीं था कि इस घटना का सदमा उसे ऐसे हालात की तरफ ले जाएगा कि उसे शादी के नाम से ही नफ़रत हो जायेगी. इसी के चलते उसने आज तक शादी नहीं की है और वो आज भी अकेला जयपुर में ही रह रहा है. मैं उस रात सारे वक्त जगाता रहा और उसके बारे में ही सोचता रहा. उस वक्त मेरे दिल में केवल एक ही पंक्ति आई कि "काश वो समझ पाता" धीरे धीरे समय गुजरता गया. कुछ दिन पहले मुझे एक बार फिर उस मित्र के साथ घटी वो घटना याद आई और साथ ही वो पंक्ति भी. बस उसी वक्त इस रचना का जन्म हो गया.
काश कभी मैं समझ पाता
तुम्हारी आँखों में उठते सवालों को
हमारे दिल में उठती हुई लहरों को
काश कभी मैं समझ पाता
उदास होती हुई उन शामों को
लम्बी होती हुई उन रातों को
काश कभी मैं समझ पाता
अधूरी लगती हर मुलाकातों को
होठों पर रूकती हुई उन बातों को
काश कभी मैं समझ पाता
हमारे दिल में बढती हुई उस घबराहट को
मुलाकातों के लिए बढती हुई चाहतों को
काश कभी मैं समझ पाता
तुम्हारी आँखों में बरसते सावन को
हर चेहरे में तुम्हारी तलाश को
काश कभी मैं समझ पाता
हर बात में तुम्हारे उस रूठ जाने को
मेरे मनाते ही तुम्हारे मान जाने को
काश कभी मैं समझ पाता
तुम्हारी किताबों में लिखे मेरे नामों को
तुम तक ना पहुंचे मेरे उन पयामों को
काश कभी मैं समझ पाता
हमारी मुलाकातों पर उठती उंगलीयों को
मुझ पर हंसती तुम्हारी उन सहेलीयों को
काश कभी मैं समझ पाता
तुम्हारी गलियों की तरफ बढ़ते हमारे कदमों को
सुनते ही हमारा नाम तुम्हारा शरमाने को
काश कभी मैं समझ पाता
अलसाई हुई उन दोपहरों को
जलती हुई बरसात की बूंदों को
काश कभी मैं समझ पाता
अंतिम मिलन पर हमारी आँखों के सावन को
जो हम ना कह सके उन सभी बातों को
काश कभी मैं समझ पाता
रविवार, 23 मई 2010
अब और तुम्हें क्या चाहिए
रंग गया मैं तेरे रंग में अब और तुम्हें क्या चाहिए
बसा लिया तुम्हें पलकों में अब और तुम्हें क्या चाहिए
राँझा होकर भी हीर हो गया अब और तुम्हें क्या चाहिए
तेरी याद में फ़कीर हो गया अब और तुम्हें क्या चाहिए
तेरा प्यार मेरी तकदीर हो गया अब और तुम्हें क्या चाहिए
मेरा चेहरा तेरी तस्वीर हो गया अब और तुम्हें क्या चाहिए
मेरा दिल तुम्हारा घर हो गया अब और तुम्हें क्या चाहिए
तुम्हें पाकर मैं सब हार गया अब और तुम्हें क्या चाहिए
शुक्रवार, 21 मई 2010
भूली बिसरी यादें
नज़रों में तो था मगर दिल से दूर था
वो मेरा होकर भी कभी मेरा ना था
बे चराग गलियों में उसकी आवाजें तो थी
दरीचों से झाँका मगर गलियों में कोई न था
उसके जाने के बाद दिल तो बहुत रोया
मगर आंखों में उसकी एक आंसू ना था
दूर तलक फैले तो थे उसकी यादों के काले साये
मगर धूप का कहीं नाम ओ निशान तक ना था
घर के हर कोने में गूँज रही थी उसकी आहटें
आँख खोली तो फकत तस्वीर में उसका चेहरा था
अब ना वो कभी लौटेगा, रहेगी सिर्फ उसकी यादें
नाशाद, पर दिल रोज कहेगा वो हमसफ़र मेरा था
बुधवार, 19 मई 2010

बचपन का गाँव
वो जो बचपन का गाँव जिसे हम कहीं दूर छोड़ आए
चलो आज फ़िर से उसी गाँव की तरफ़ चला जाए
वो जो पीपल जिसके साए में गुजरती थी हर दोपहर
चलो आज फ़िर उसी पीपल की छाँव में बैठा जाए
वो जो गाँव की गलीयाँ जहाँ हम दौड़ा करते थे दिन भर
चलो फ़िर उन्ही गलीयों में बेमतलब घूमा जाए
वो जो अमराइयाँ जिनमे हम चुराया करते थे आम हर रोज़
चलो आज फ़िर उन्ही अमराइयों की तरफ़ चला जाए
वो जो बचपन का साथी हर खेल में जिससे होता था झगडा
चलो आज चलकर उससे गले मिलकर रोया जाए
बहुत हो चुका बेदिल बदइंतजाम आज का शहर
चलो फ़िर लौटकर नाशाद अपने गाँव बसा जाए
मंगलवार, 18 मई 2010
अक्सर सबसे छुपकर
वो मेरी तस्वीर बनाता क्यों है
कागजों पर लिखकर मेरा नाम
वो ज़माने से छुपाता क्यों है
देखकर सूरत मेरी
वो हर बार मुस्कुराता क्यों है
मेरे वापस मुस्कुराने पर
वो ख़ुद फ़िर शर्माता क्यों है
जब अपना दिल मुझे दे दिया तो
वो ज़माने से घबराता क्यों है
जब मैंने खुदा से उसे मांग लिया तो
वो दुआओं में मुझे मांगता क्यों है
इश्क में नहीं मिला करते गुलाब तो
वो काँटों से घबराता क्यों है
रोज़ मुझसे मिलता है तो फ़िर
वो मेरे ख्वाबों में आता क्यों है
उसके दिल में है तस्वीर मेरी तो
वो उसे मुझसे छुपाता क्यों है
प्यार जब उसने मुझसे किया है तो
वो ज़माने को बताता क्यों है
रविवार, 16 मई 2010
यह रचना मेरे दिल में एक बहुत अलग स्थान रखती है. मैंने इसमें अपने खुद के बीते हुए समय को याद किया है. मैंने इसमें लिखा है कि मुझे तीन माँओं ने पाला था. मेरे दादा रेलवे स्टेशन मास्टर थे. दादा तथा दादी अकेले ही रहते थे क्योंकि मेरे पापा दिल्ली में नौकरी करते थे.
उस आँगन में बा तुम
वहां सरल जीवन मैं जीता था
मैं जब केवल एक साल का था जब मेरे दादा-दादी मुझे अपने साथ ले गए यह कहकर कि उन दोनों का अकेले मन नहीं लगता है. मैं १९६५ से लेकर १९७२ तक उन दोनों के साथ बालोतरा से पचपदरा सिटी होकर पचपदरा साल्ट डेपो जानेवाली ब्रांच लाइन पर पचपदरा साल्ट डेपो पर स्टेशन मास्टर थे. १९७३ में मेरे दादा सेवानिवृत हो गए. इसके बाद मैं अपनी दादी और मम्मी के साथ १९७३ से १९७९ तक रहा. इसके बाद मैं फिर से जोधपुर आ गया अपनी दादी के साथ. १९७९ से १९८१ तक मैं अपनी दादी के साथ अकेला रहा. १९८१ में दादी का स्वर्गवास हो गया और मैं आगे की पढ़ाई जारी रखने के लिए अपनी बुवा के पास जोधपुर में ही रहने लगा. १९८१ से लेकर १९८४ तक मैं अपनी बुवा के साथ रहा.
इसके बाद मैं १९८४ में फिर से अपने पापा-मम्मी के साथ रहने आ गया. इस तरह मुझे तीन माँओं ने मिलकर पाला और मुझे हर तरह की शिक्षा मिली. ये मेरे लिए बड़े फक्र और किस्मत की बात है. इन सब घटनाओं को केंद्र बनाकर मैंने इस कविता की रचना की है. मुझे आज भी अपने बचपन से लेकर जोधपुर में बिताये हुए समय की लगभग हर घटना याद है. वहां के त्यौहार ; वहां की शादीयाँ और समय समय पर विभिन्न त्यौहारों पर निकलने वाले मेले, सब कुछ याद है. वहां के जिंदादिल और मिलनसार लोग और वहां का खुशनुमा और उल्लासमय माहौल मुझे अभी भी रह रहकर जैसे पुकारता है.
बस इसी का नाम तो जीवन है -
सिर्फ सांस लेना ही नाशाद जीवन नहीं है
हर एक सांस को जीना ही जीवन कहते हैं
अपना गलियारा
है याद मुझे वो गलियारा
वो आँगन वो चौबारा
वो घर वो गाँव
वो बा बाउजी का चेहरा
उस आँगन में बा तुम
मुझको खूब खिलाती थी
अच्छाई का सच्चाई का
मुझको पाठ सिखाती थी
सीधी सीधी बातों में तुम
मुझे सीख अच्छी दे जाती थी
हर इंसान में भगवान् है
मुझे तुम रोज़ समझाती थी
वहां सरल जीवन मैं जीता था
भोलेपन की मिटटी में दिल रहता था
गाँव की गलीयों में जीवन जी रहा था
बा - बाउजी की मुस्कानों में सारा जहाँ था
फ़िर वो दिन भी आया जब दूर जाना पड़ा
सब कुछ छोड़ सब कुछ भूल दूर जाना पड़ा
बाउजी को हमेशा हमेशा के लिए खोना पड़ा
गाँव गलियां चौबारा ना जाने क्यों छोड़ना पड़ा
कुछ लम्हे फ़िर भी बाकी बिताने को मिले
बा की जिंदगी से कुछ हिस्से मुझे और मिले
कितना खुशनसीब था मैं ; मुझे तीन माँओं ने पाला था
सब कुछ पाकर भी जैसे सब कुछ मैंने खो दिया है
ना जाने मुझे आज फ़िर क्यों मेरा गाँव याद आया है
ना जाने बा बाउजी ने उसे कहाँ छुपाया है
कोई मुझे आज ये बताये मैं क्यों जीवन हूँ हारा
क्यों छूटा है मेरा वो गाँव, गलियां वो चौबारा
अपने आँगन से प्यार करो ; अपने गलियारों में खेलो
खुशीयों के तीर चलाओ ; सुख की लहरों से खेलो
जो वक्त आज गुजर रहा है फ़िर ना आएगा दोबारा
तुम तरसोगे आँगन को ; खोजोगे अपना गलियारा
खोजोगे अपना गलियारा ..........
शनिवार, 15 मई 2010
आराधना
पहाडों के आँचल में ;
नदियों की कलकल में
नदियों की कलकल में
पक्षियों की कलरव में ;
तारों की झिलमिल में
तारों की झिलमिल में
सपनों के गाँव में
शहरों की गलीयों में ;
यादों के बसेरों में
यादों के बसेरों में
फूलों की कलियों में ;
सावन के झूलों में
सावन के झूलों में
डायरी के भरे पन्नों में ;
धुंधली होती तस्वीरों में
धुंधली होती तस्वीरों में
याद आती मुलाकातों में ;
भूलती हुई यादों में
भूलती हुई यादों में
कभी जो किए थे वादों में ;
अटल हमारे इरादों में
अटल हमारे इरादों में
किसी को तलाश है तेरी
लौट आने की आस है तेरी
तुम बिन कोई आज भी अधूरा है
सूना किसी का बसेरा है
हर जगह तुझे कोई तलाशता है
हर दुआ में तुझे कोई मांगता है
हर रोज़ तेरी आराधना करता है
हर रोज़ तेरी तलाश करता है
लोग मुझे तेरी तलाश कहते हैं
लोग तुझे मेरी आराधना कहते हैं
गुरुवार, 13 मई 2010

मैं आज भी सपनों में उस गाँव को देखता हूँ. आज भी मैं उस गाँव से अपनी करीबी महसूस करता हूँ. एक बार उस गाँव को जाकर देखना चाहता हूँ. लेकिन अब वो गाँव रेल-मार्ग से कट चुका है. वहां शायद कोई सड़क भी नहीं जाती. लेकिन मेरी आरज़ू है कि कम से कम एक बार मैं वो गाँव देखूं. ये रचना मेरी इस कल्पना की मात्र एक तस्वीर है. मुझे शायद ऐसा ही अहसास होगा जब मैं उस गाँव को देखूंगा. मैं नहीं जानता कि कब मैं उस गाँव पहुंचुंगा लेकिन जाना ज़रूर चाहता हूँ. यूँ तो इंसान कई आरजूएं करता है लेकिन मेरी आरज़ू है कि उस गाँव को फिर से देखने की जिसे मैं आज से करीब सैंतीस साल पहले अकेला छोड़ आया था. आज भी वो मेरा गाँव मेरा इंतज़ार कर रहा है. मेरा बचपन मेरा इंतज़ार कर रहा है. मेरी यादें मेरा इंतज़ार कर रही है. आज भले ही चाहे कोई वहां रहता ना हो लेकिन ना जाने ऐसा क्यूँ लगता है की कोई वहां मेरा इंतज़ार कर रहा है.
अपना गाँव
बरसों बाद अपने गाँव पहुँचा तो रात भर
बचपन के सारे गीत मुझे सुनाती रही हवा
गाँव उजड़ चुका था हर दोस्त बिछुड़ चुका था
फ़िर भी इन सभी का अहसास कराती रही हवा
हर दोपहर का साथी वो बरगद सूख चुका था
उसके सूखे ठूंठ से टकराती फिरती रही हवा
सावन रूठ चुका था तालाब सूख चुका था
कागज़ की कश्तियों को ख़ुद ही उडाती रही हवा
वो आँगन सूना था जहाँ दादा दादी का बसेरा था
नाम उनका मेरे संग पुकारती रही हवा
मैं अकेला ही खड़ा था बचपन के उजडे गाँव में
नाम मेरा पुकारती और मुझे ही ढूंढती रही हवा
उजडा गाँव फ़िर से बसाकर क्या नाशाद यहीं रहोगे
अपने सवाल के ज़वाब का इंतज़ार करती रही हवा
बुधवार, 12 मई 2010
आज मैं तुम पर दिल हार गया
चाहे मन की दुर्बलता कह लो
ना जाने दिल क्यूँ मजबूर हो गया
देखा तुम्हें तो मैं सब भूल गया
आज मैं तुम पर दिल हार गया
मैं आंसू हूँ तू आँचल है
मैं प्यासा हूँ तू सावन है
तुम चाहे मुझे दीवाना कह लो
या कोई पागल मस्ताना कह लो
अपना सब कुछ मैं छोड़ आया
मैं अपनी मंजिल तक भुला आया
आज मैं तुम पर दिल हर गया
मैं दिल हूँ तुम धड़कन हो
मैं प्रीत तुम तड़पन हो
तुम चाहे मुझे प्रेम रोगी कह लो
तुम चाहे मुझे मनो रोगी कह लो
तुम्हें याद करते करते सब भूल गया
मैं अपना नाम पता तक सब भूल गया
आज मैं तुम पर दिल हार गया
मैं जिस्म हूँ तुम जीवन हो
मैं चेहरा हूँ तुम दर्पण हो
तुम चाहे इसे पागलपन कह लो
या इश्क का मतवालापन कह लो
अपने नाम की जगह मैं तेरा नाम बता आया
अपने घर की जगह मैं तेरा पता बता आया
आज मैं तुम पर दिल हार गया
गली गली मैं भटका हूँ
पनघट पनघट मैं तरसा हूँ
तेरी कजरारी आंखों मैं भटका हूँ
अब तुम न मुझे ठुकराना
अब तुम न मुझे तरसाना
तुम चाहे इसे पागलपन कह लो
या तुम्हारे प्रेम का पूजन कह लो
तेरी मुस्कानों पर मैं अपना होश गवां आया
तेरी मासूम अदाओं पर मैं अपना सब कुछ गवां आया
आज मैं तुम पर दिल हार गया
आज मैं तुम पर दिल हार गया
मंगलवार, 11 मई 2010
मैं हूँ खुशबू ,हवाओं में बिखर जाऊँगा
मैं हूँ ख्वाब ,तेरी आंखों में बस जाऊँगा
मैं ग़ज़ल हूँ ,तेरी किताबों में लिखा जाऊँगा
दास्ताँ-ऐ-इश्क हूँ तेरी ; हर महफिल में सुना जाऊँगा
मैं हूँ सफर, तेरी राह बन जाऊँगा
देखना, किसी दिन तेरा बन जाऊँगा
मैं तलाश हूँ ,तेरी मंजिल बन जाऊंगा
ना भुला सकोगे मुझे, तेरी यादों में बस जाऊँगा
सोमवार, 10 मई 2010
आज से अपनी कुछ पुरानी रचनाएँ पुन:प्रकाशित कर रहा हूँ. कुछ रचनाएं मैंने मेरे कॉलेज के दिनों में लिखी थी. उन रचनाओं के बारे में मैं संबधित रचना के साथ ही लिखा करूंगा. इससे मैं कुछ अपने बीते हुए बहुत ही सुहाने पलों को भी याद कर लूँगा और आपको भी अपने बीते हुए कल की सैर करवाया करूँगा. आशा है ये प्रयोग आपको पसंद आयेगा. मैं अपनी बीती जिन्दगी की कुछ यादगार और कुछ खट्टी-मीठी घटनाओं को अपने दूसरे ब्लॉग " यादों के झरोखों से" www.sitanchal.blogspot.com पर कल से पोस्ट करना आरम्भ कर रहा हूँ. अपनी यादें और कुछ अपने दिल की बातों को आपके साथ बांटना चाहता हूँ. आप सभी ने मेरी ग़ज़लों , कविताओं और नज्मों को पसंद किया है ; आशा है यादों के झरोखों से जब आप मेरी बीती हुई ज़िन्दगी में झांकोगे तो वो भी आपको उतनी ही पसंद आयेगी.
तो लिजीये इस कड़ी की पहली रचना. इसे मैंने १९८३ में लिखा था. उन दिनों मैं बी एस सी द्वितीय वर्ष में था और फाइनल वर्ष के विद्यार्थीयों के विदाई समारोह के दिन मैंने इसे पढ़ा था. मुझे आज भी याद है हमारे हिंदी के प्रोफ़ेसर श्री लक्ष्मीकांतजी जोशी ने मुझे उपहार स्वरुप अपना एक पेन दिया था. उस रचना को आज मैं उन दिनों को फिर से याद करते हुए इसे आप सभी लोगों के हवाले कर रहा हूँ. अपनी टिप्पणी जरुर भेजिएगा. मुझे अपने लेखन को सुधारने में बहुत मदद मिलेगी.
ना हो जुदा
मेरे हमसफ़र मेरे हमकदम
ना हो तू अब मुझसे जुदा
मेरे हमराज़ मेरे हमनशीं
तू ही है अब मेरा खुदा
मेरे हमराज़ मेरे हमराह
मुझको बस तेरी ही चाह
मेरे हबीब रह मेरे करीब
ना हो तू अब मुझसे जुदा
मेरे महजबीं मेरे राजदार
मेरे दिल को है तुझसे करार
मेरे माहताब तुझे मेरी कसम
ना हो तू अब मुझसे जुदा
मेरे राज-ऐ-दिल मेरी जुस्तजू
तू ही मेरी आखिरी आरजू
मेरे आफताब तुझे खुदा कसम
ना हो तू अब मुझसे जुदा
रविवार, 9 मई 2010
यह कविता मेरी मम्मी के चरणों में अर्पित कर रहा हूँ. मेरी मम्मी जिनकी ऑंखें हम तीनों भाईयों के लिए सपने देखती हैं. जिनका दिल हमारे पूरे परिवार के लिए धडकता है. जिनकी मुस्कान हमें हर वक्त हिम्मत दिलाती है और यह कहती है कि जीवन में कभी हार मत स्वीकारना. जीतना ही जीवन है.
माँ
इस धरती पर भगवान का रूप है माँ जीवन के इस सफ़र में ठंडी छाँव है माँ
माँ, दुखों की कड़ी धुप में
शीतलता का एहसास है
माँ, अगर हमारे पास है तो
सारे जहाँ की खुशीयाँ पास है
माँ के आँचल में जैसे
हर फूल की खुशबू है
माँ की गोद में जैसे
हर उलझन का हल है
माँ की मुस्कान में जैसे
खुदा खुद मुस्कुराता है
माँ के दुलार से जैसे
हर चमन में बहार है

माँ की ममता से जैसे
सारी दुनिया पलती है
माँ की आँखों में जैसे
तीनों लोकों का ज्ञान है
इन आँखों में कभी आंसू ना आए
इन होठों से कभी मुस्कान ना जाए
इस आँचल पर कोई आंच ना आए
चाहे हमसे हर ख़ुशी छिन जाए
माँ से दूर कभी कोई लाल ना जाए
चाहे सारी दुनिया से साथ छूट जाए
मंगलवार, 4 मई 2010
ढूंढता हूँ
हो मंजिलें ही मंजिलें
ऐसा सफ़र ढूंढता हूँ
जो चले हर जनम साथ
ऐसा हमसफ़र ढूंढता हूँ
जहाँ खुशीयाँ बसती हो
ऐसा शहर ढूंढता हूँ
जहाँ इंसान बसते हो
ऐसा जहां ढूंढता हूँ
जिसमे बहारें ही बहारें हो
ऐसा मौसम ढूंढता हूँ
जिससे हर कोई झूम जाए
ऐसी खुशीयाँ ढूँढता हूँ
जो कर दे दिल को घायल
ऐसी नज़र ढूंढता हूँ
जिस पर खुद को वार दूँ
ऐसी मुस्कान ढूंढता हूँ
बिन पिए ही आ जाए नशा
ऐसी मय ढूंढता हूँ
जिस पर हर परवाना जल मरे
वो शम्मां ढूंढता हूँ
जो सारे जहाँ पर बरसे
ऐसा सावन ढूंढता हूँ
जिस पर दुनिया है कायम
वो उम्मीद ढूंढता हूँ
नामुमकिन है फिर भी
मैं ज़िन्दगी ढूंढता हूँ
आज तक जो मिला नहीं
मैं उस खुदा को ढूंढता हूँ
हो मंजिलें ही मंजिलें
ऐसा सफ़र ढूंढता हूँ
जो चले हर जनम साथ
ऐसा हमसफ़र ढूंढता हूँ
जहाँ खुशीयाँ बसती हो
ऐसा शहर ढूंढता हूँ
जहाँ इंसान बसते हो
ऐसा जहां ढूंढता हूँ
जिसमे बहारें ही बहारें हो
ऐसा मौसम ढूंढता हूँ
जिससे हर कोई झूम जाए
ऐसी खुशीयाँ ढूँढता हूँ
जो कर दे दिल को घायल
ऐसी नज़र ढूंढता हूँ
जिस पर खुद को वार दूँ
ऐसी मुस्कान ढूंढता हूँ
बिन पिए ही आ जाए नशा
ऐसी मय ढूंढता हूँ
जिस पर हर परवाना जल मरे
वो शम्मां ढूंढता हूँ
जो सारे जहाँ पर बरसे
ऐसा सावन ढूंढता हूँ
जिस पर दुनिया है कायम
वो उम्मीद ढूंढता हूँ
नामुमकिन है फिर भी
मैं ज़िन्दगी ढूंढता हूँ
आज तक जो मिला नहीं
मैं उस खुदा को ढूंढता हूँ
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