अब तो हर मंज़र किसी साज़िश की ही खबर देता है
फूलों के गुलिस्ताँ में अब बारूद अपनी महक देता है
कभी रौशनी के लिए जलती थी मशालें हर घर घर में
इंसान अब तो मशाल से किसी का भी घर जला देता है
लोग थे फ़रिश्ते जन्मों के थे नाते खुशियों के थे मेले
अब दिखावे से मिल गले इन्सां इक रस्म निभा देता हैं
घूमते हैं सरेआम कातिल लिए खंज़र हाथ में हरसू
नहीं किया जिसने जुर्म वो सहमा सा दिखाई देता है
नहीं फ़िक्र नेता संत मौल्ला को मरा जा रहा आदमी
जिसे भी देखो वो कुर्सी के लिए अंधा दिखाई देता है
= नरेश नाशाद