इस रचना से मेरा बहुत अलग लगाव है. इसका एकमात्र कारण यह है कि यह मेरी पहली रचना है. मैंने इसे ४ दिसम्बर १९८२ के दिन लिखा था. उन दिनों मैं बी एस सी द्वितीय वर्ष में था. मैं जोधपुर की लाचू कॉलेज में अध्ययनरत था. एक अलग और यादगार अनुभव था वो. मैंने लिखने के बाद अपने सभी दोस्तों को कॉलेज में सुनाया और इससे पहले कि वे कुछ कहते मैंने कहना शुरू कर दिया कि क्या तुम लोग ऐसा लिख सकते हो ? आज भी उस दिन को याद कर के मेरी आँखें नाम हो जाती है.वे दिन अब कभी लौट कर नहीं आयेंगे; बस युहीं यादों से अपनी तड़पाया करेंगे. कभी कभी मैं यह सोचने लग जाता हूँ और अक्सर सोचा करता हूँ कि हमें हमारा बीता हुआ वक्त हमेशा ज्यादा अच्छा या खुशनुमा क्यूँ लगता है ? जैसे जैसे वक्त गुज़रता जाता है ऐसे लगाने लगता है कि हम पहले कि तरह खुश नहीं है. धीरे धीरे गम बढ़ते हुए क्यूँ प्रतीत होते हैं ? ऐसा क्यूँ लगता है कि हम खुद से ही दूर हो गए हैं ? पहले की तरह हम अपने आप को इतना सहज महसूस क्यों नहीं कर रहे है ? क्या आप के पास इसका कोई ज़वाब है ?
मेरा ख्वाब
दूर पहाड़ों कि गोद में होगा घर हमारा
चारों ओर होगा खुशीयों का नज़ारा
वहां पर ना होगा कभी ग़मों का अँधेरा
खिला रहेगा वहां सदा खुशीयों का सवेरा
दुनिया की हर ख़ुशी होगी हमारी
कोई गम ना होगा दिल को गवारा
खुशीयों के बादल दिल के आसमानों पर छाएंगे
ठंडी हवाओं के संग हम गीत ख्सुही के गायेंगे
सोमवार, 8 फ़रवरी 2010
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