वो गलीयाँ हमें बुलाती हैं
वो गलीयाँ हमें बुलाती हैं
जहाँ हमने बचपन गुजारा था
वो बचपन हमें पुकारता है
जिसमे हम ने खूब मेले देखे थे
वो मेले हमें लुभाते हैं
जिनमें हम दोस्तों के साथ घूमे थे
वो दोस्त हमें याद करते हैं
जिनके साथ महफिलें सजाई थीं
वो महफ़िलें हम बिन सुनी हैं
जिनमें हम ने कई गज़लें पढी थीं
वो गज़लें पढ़े जाने को तरसती हैं
जिनमे कोई नाम छुपा हुआ था
कोई हमें आज भी चाहता है
जिसे हम दरीचे में खड़ा पाते थे
वो दरीचे आज भी खुले हैं
जिनमे खड़ा कोई आवाजें देता था
वो आवाजें आज भी पीछा करती हैं
जिनसे गलीयाँ गुलज़ार रहती थीं
वो गलीयाँ आज भी हमें बुलाती हैं
शायद कोई आज भी हमें याद करता है
कोई आज भी दरीचे से पुकार रहा है
"नाशाद" शायद कोई बुला रहा है
शायद कोई इंतज़ार कर रहा है
कोई आज भी ......
कोई आज भी .....
मंगलवार, 20 अप्रैल 2010
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