गुरुवार, 18 फ़रवरी 2010


















तुम्हें भुला ना पाई 

मैं तुम्हें भुला ना पाई प्रियतम
तुम्हें भुला ना पाई

वो तुम्हारी मुस्कान
वो आंखों की भाषा
जिनमें थी प्यार की अभिलाषा
वो ख़त पुराने
जिनमें थी प्यार की परिभाषा
वो सपन सुहाने
वो खनकती आवाज़
वो पहचानी सी आहट
वो मिलन की हर घडी
मैं तुम्हे भुला ना पाई प्रियतम
तुम्हें भुला ना पाई

वो मंदिर की दहलीज
वो अनसुनी प्रार्थनाएं
वो मज़ार पर चादरें
वो लौटी फरियादें
वो पीपल तले वादे
वो जनम जनम के वादे
वो सूने दरीचे
वो खाली राहें
वो अंतिम मिलन पर सुबकती रुलाई
अपनी जुदाई मैं ना समझ पाई

मैं तुम्हें भुला ना पाई प्रियतम
तुम्हें भुला ना पाई

जब भी चली कभी पुरवाई
मुझे तुम्हारी ही याद आई
मैं तुम्हें भुला ना पाई प्रियतम
तुम्हें भुला ना पाई

1 टिप्पणी:

शारदा अरोरा ने कहा…

एक विरहन की व्यथा को सशक्त अभिव्यक्ति दी है | अच्छा अगर आप ' वो लौटीं फरियादें ' की जगह ये लिखें ,' वो खाली हाथ लौटीं फरियादें ', तो कैसा रहे ? अगर आप को पसंद आए तो लिख लीजिये |