सोमवार, 28 मई 2012

मैं ढूंढता हूँ खुद को  मगर मुझे  मैं खुद  ही नहीं मिलता
ये कैसा जहाँ है नाशाद जहाँ कोई खुद से ही नहीं मिलता

जिंदगी तो जी रहा हूँ   मगर मैं  जिंदगी से  नहीं मिलता 
सांसे चलती है मेरी मगर इनका कोई सबब नहीं मिलता

है रास्ते मेरे सामने मगर  मंजिल का पता नहीं मिलता
जो बढे हैं आगे उनके क़दमों का कोई निशाँ नहीं मिलता


किस किस को अब पुकारूँ नाशाद कोई हमखयाल नहीं मिलता
मिल जाता खुदा में ही मगर आजकल तो खुदा भी नहीं मिलता 


 

2 टिप्‍पणियां:

sunil purohit ने कहा…

बहुत उम्दा बयाँ किया खुद को तेने,तेरे से जुदा अनगिनत है जहान में,गिनते-गिनते थक जाएगा,लगे जो अपने सा ,ऐसी गिनती बस तूं बढाए जा |

sunil purohit ने कहा…

बहुत उम्दा बयाँ किया खुद को तेने,तेरे से जुदा अनगिनत है जहान में,गिनते-गिनते थक जाएगा,लगे जो अपने सा ,ऐसी गिनती बस तूं बढाए जा |