शुक्रवार, 12 मार्च 2010

भारतीय संस्कृति का मखौल उड़ाते आज के धारावाहिक  

इन दिनों अनगिनत धारावाहिक अलग अलग चैनलों पर दिखाए जा रहे हैं. इन धारावाहिकों में जिस तरह से हमारी संस्कृति का मखौल उड़ाया जा रहा है वो असहनीय है. सामजिक कुरीतियों को उजागर करना एक अच्छी बात है लेकिन उन कुरितेयों को बढा चढ़ा कर दिखाना कहाँ तक उचित है . दो दो माह तक एक ही घटना को दिखाना किसी की सहनशक्ति का इम्तिहान लेना है . कब कौनसे धारावाहिक की कहानी किधर मुड जाएगी यह शायद उस धारावाहिक का लेखक भी खुद नहीं जानता. बालिका वधु ; ना आना इस देस लाडो; बैरी पिया और ना जाने क्या क्या ? छह छह सात सात साल तक एक ही धारावाहिक को इस तरह से घसीटा जा रहा ही कि जैसे हमारे यहाँ अच्छी और स्वस्थ कहानीयों का अकाल पड़ गया हो. आजकल चल रहे धारावाहिकों में केवल सामाजिक समस्याओं और कुरीतियों को बढा चढ़ा कर दर्शाया जा रहा है. कभी कभी ऊब सी हो जाती है.   कभी कभी तो ऐसा लगता है जैसे आजकल के धारावाहिक केवल पैसा कमाने के लिए बनाए जा रहे हैं और दर्शकों से कोई लेना देना नहीं है . फ़िल्मी ड्रामों से भी कहीं  अधिक नाटकीयता आ गई है . एक ही परिवार के सदस्यों की आपस में बेहद गिरी हुई दुश्मनी बतलाना लेखकों और निर्माता - निर्देशकों के दिमागी दीवालियापन का सबूत है .भारतीय नारी का जिस तरह से चरित्र हनन किया जा रहा है वो बरदाश्त की हद से बाहर है . कब कौनसी औरत किस पुरुष की पत्नी बनने वाली है कोई नहीं बता सकता. कभी  कभी तो कहने इतना भटक जाती है कि लेखक खुद ही अपने को भटका हुआ महसूस करने लग जाता  है और आखिर में तंग आकर किसी पात्र को या तो बिना मतलब मार डालता है या उसकी याददाश्त को मिटा देता है .
बात बात पर सडकों पर उतरने वाले तमाम महिला संघटन कहाँ है ?  महिला आयोग भी जैसे सो रहा है ? हर धारावाहिक में एक एक नारी का दो दो पुरुषों से सम्बन्ध बताना भारतीय संस्कृति का मखौल उड़ाना नहीं है तो और क्या है ?  जिस देश में नारी को देवी मना जाता है उस देश  में नारी का यह अपमान भारतीय नारी किस तरह से सहन कर रही है ये भी सोचने वाली बात है . 

क्या हमारे चैनलों के मालिक व्यवसाय को लेकर इतने गिर चुके हैं कि पैसे कमाने के लिए वो भारतीय संस्कृति को पूरी तरह से तोड़ मरोड़ कर दिखने पर आमादा है . विश्व हिन्दू परिषद् ; बजरंग दल , श्री राम सेने  जैसे तथाकथित सांस्कृतिक संघटन जो कि वेलेनटायन  डे मनाने पर पूरे देश में हाय तौबा मचाते हैं वो इस तरह के धारावाहिकों पर खामोश क्यों है ? एक तरफ ये संघटन खुद को भारतीय संस्कृति का ठेकेदार समझते हैं और खुद ही कहते हैं लेकिन इस चरित्र हनन पर इनकी चुप्पी हास्यास्पद है और संदेहजनक भी है. बात बात पर संस्कृति कि दुहाई देने वालों का दोमुंहापन उनकी भी असलियत दिखला रहा है . 

इन धारावाहिकों का विरोध इसी इलेक्ट्रोनिक मीडिया से ही संभव है. लेकिन यहाँ भी निराशाजनक स्थिति है . तमाम न्यूज़ चैनल भी इन धारावाहिकों को बढा चढ़ा कर दिखलाते हैं. न्यूज चैनल को अगर बिना मेहनत मसाला मिल जाय तो और क्या चाहिए . बुद्धिजीवी संघटन ही कुछ करें तो करें वर्ना स्थिति बहुत चिंताजनक है. आने वाली पीढ़ी इससे क्या शिक्षा लेगी  ये भी बहुत बड़ी चिंता का विषय है . हमारे साहित्य में अनगिनत अच्छी शिक्षाप्रद कहानियाँ और उपन्यास है लेकिन उन पर कोई धारावाहिक नहीं बनाता.  सब टीवी पर चल रहा लापतागंज धारावाहिक हमारे उत्कृष्ट साहित्य का श्रेष्ठ उदहारण है .शरद जोशी के व्यंग निबंधों पर आधारित यह धारावाहिक सभी उम्र के दर्शकों द्वारा पसंद किया जा रहा है. अच्छे प्रयास हमेशा सफल होते है बशर्ते ईमानदारी से कोई प्रयास तो करे.

हम उम्मीद करते हैं की आने वाले वक्त में लापतागंज जैसे प्रयास और भी होंगे और हमारी संस्कृति का बेहूदा मखौल उदानेवालों को मुंह की खानी पड़ेगी.