गुरुवार, 4 नवंबर 2010

मैं जब चलता हूँ

जुबां खामोश रहती है  और  निगाहें बात करती है
मैं उठकर चल देता हूँ मंजिल मिलने को तरसती है

हवाएं झूम जाती है और घटाएं खुलकर बरसती है
जब मैं मुस्कुराता हूँ सभी कलियाँ खिल जाती है  

धूप भी छाँव बन जाती है और तपिश सुकून दे जाती है 
देख लूँ आसमां की तरफ तो उस की मेहरबानी हो जाती है

जब भी कारवां-ए-नाशाद किसी भी गली से गुज़रता है  
हर दरीचा खुल जाता है गलीयाँ गुलज़ार हो जाती है 

शम्मां खुद रोशन हो जाती है हर महफ़िल जवां हो जाती है 
जब भी नाशाद की उस महफ़िल में ग़ज़लें गूँज  जाती है