मंगलवार, 20 अप्रैल 2010

वो गलीयाँ हमें बुलाती हैं

वो गलीयाँ हमें बुलाती हैं
जहाँ हमने बचपन गुजारा था

वो बचपन हमें पुकारता है
जिसमे हम ने खूब मेले देखे थे

वो मेले हमें लुभाते हैं
जिनमें हम दोस्तों के साथ घूमे थे

वो दोस्त हमें याद करते हैं
जिनके साथ महफिलें सजाई थीं



वो महफ़िलें हम बिन सुनी हैं
जिनमें हम ने कई गज़लें पढी थीं

वो गज़लें पढ़े जाने को तरसती हैं
जिनमे कोई नाम छुपा हुआ था

कोई हमें आज भी चाहता है
जिसे हम दरीचे में खड़ा पाते थे

वो दरीचे आज भी खुले हैं
जिनमे खड़ा कोई आवाजें देता था

वो आवाजें आज भी पीछा करती हैं
जिनसे गलीयाँ गुलज़ार रहती थीं





वो गलीयाँ आज भी हमें बुलाती हैं
शायद कोई आज भी हमें याद करता है
कोई आज भी दरीचे से पुकार रहा है
"नाशाद" शायद कोई बुला रहा है
शायद कोई इंतज़ार कर रहा है
कोई आज भी ......
कोई आज भी .....