शुक्रवार, 2 दिसंबर 2011

             लम्हे 

वो लम्हे जब वक्त भी ठहर गया था 
नाशाद अलविदा जब तुमने कहा था
इस जुदाई से चाँद भी हिल गया था 
बादलों के बीच वो भी छुप गया था 
खामोशी ही कर रही थी बातें मुझ से 
तुमने तो कह अलविदा सब कह दिया था


उस मोड़ पर तुम राह बदल चले गए थे 

सफ़र में मुझे तनहा छोड़ गए थे 
मैं ये सोच रहा था ये राह कहाँ तक है
मंजिल का सफ़र अब क़यामत तक है
वो लम्हे बर्फ की तरह जम गए थे 
आँखों के आंसू भी जैसे वहीँ थम गए थे 
    

मुझे अब भी याद है वो लम्हे वो मोड़ 
जहाँ हम आखिरी बार मिले थे 
सोचता हूँ जुदाई ही ज़रिया था मिलने का 
हम चलते रहे थे दरिया के दो किनारों जैसे 
साथ साथ मगर इक दूजे से जुदा जुदा 
मिलकर समंदर में ही शायद हम मिल सकें 
नाशाद तब ही हम साथ साथ चल सकें