सोमवार, 12 अप्रैल 2010


बेटीयाँ 

हर घर की रौनक होती है बेटीयाँ
हर घर की  शान  होती है बेटीयाँ

खुद का घर छोड़कर
सभी अपनों को छोड़कर
दूसरों के घरों को
बसाती संभालती है बेटीयाँ





अपने आंसुओं को
अपनी आरजुओं को
मन ही मन में हरदम
दफ़न करती है बेटीयाँ

भेदभाव देखती है
अत्याचार सहती है
फिर भी चेहरे पर शिकन
नहीं आने देती है बेटीयाँ

सबके गम सहती है
सबके दुःख हरती है
खुद के लिए कभी भी
कुछ नहीं मांगती है बेटीयाँ




हर किसी को चाहिये
इन्हें घर की इज्जत समझें
इन्हें खुदा का वरदान समझें
बहुत ही किस्मत वालों को
मिलती है बेटीयाँ



कितना सूनापन लगता है
घर अधुरा सा लगता है
उन्हें हर कोई जाकर पूछे
जिनके नहीं होती बेटीयाँ


हर घर की रौनक होती है बेटीयाँ 
हर घर की  शान  होती है बेटीयाँ 


मंजिल मिल गई हो जैसे

वो  मुझे देख रहे हैं  कुछ ऐसे
उन्हें मंजिल मिल गई हो जैसे 

उनकी तस्वीर लग रही है कुछ ऐसे
बस मुझसे अभी बोल पड़ेगी वो जैसे

उसने मेरा हाथ थाम लिया कुछ ऐसे
जनम जनम का हमारा साथ हो जैसे

बरसों बाद उसे देख लगा कुछ ऐसे
पहली बार ही हम मिल रहे हों जैसे

दिल में है बहुत बातें पर वो खामोश है कुछ ऐसे
ज़जीरों ने उनकी जुबां को जकड लिया हो जैसे

उनकी गलीयों की तरफ कदम बढे कुछ ऐसे
हम अपने  ही घर की तरफ जा रहे हों जैसे

"नाशाद" ना आये महफिलों में तो लगे कुछ ऐसे
शाम-ए-ग़ज़ल है पर शम्मा ही ना जली हो जैसे