शनिवार, 3 अप्रैल 2010

हिज्र के दिन 

जिनकी तस्वीर थी  निगाहों में
उन्हें देखा सिर्फ हमने ख़्वाबों में

ना मिलूँगा अब मैं तुझे खजानों में
गर चाहता है  तो  ढूंढ  खराबों में 

ना जंगल में मिले  ना ही बागों में
वे सूखे फूल जो रखे थे किताबों में

दरिया में रहकर भी हम रहे प्यासे
अब ढूंढते हैं  हम  आब  सराबों में

शबो- रोजो- माहो-साल इसके आगे क्या गिनुं
तेरे हिज्र के दिनों की गिनती नहीं हिसाबों  में

तुझसे मिलूं या बिछुड़ जाऊं हमेशा के लिए
गुज़र गई जिंदगी "नाशाद" इसी दोराहे में   


खुदा को भी ले आऊँ 

जिंदगी का ये गीत मैं यूहीं गाता चला जाऊं
हर किसी को मैं बस खुश रखता चला जाऊं

गर पड़े कभी पीना किसी दिन कोई ज़हर
बन के नीलकंठ  मैं वो ज़हर भी पी जाऊं

गर मिले सभी को कोई भी तरह की सज़ा
बन के राम मैं हँसते हुए वनवास चला जाऊं

गर बरसे कोई आफत  सब पर  आसमानों से
बन के कृष्ण मैं अपने ऊपर गोवर्धन उठा जाऊं

ना आने दूं कोई भी ग़म मेरे अपनों की तरफ
हर ग़म को हँसते हुए गले लगाता चला जाऊं

गर दे दे खुदा मुझे किसी दिन अपनी जादूगरी
जो भी बिछुड़े हैं हमसे मैं उन्हें फिर लौटा लाऊँ

बाँध लूं मैं खुद को रिश्तों की ऐसी जंजीरों में
गर बुलाए खुदा भी तो मैं उसके पास ना जाऊं

सब को रख लूं एक बनाकर ज़हान को बना दूं मैं ज़न्नत
फिर एक दिन "नाशाद" जाकर खुदा को भी यहाँ ले आऊँ

दूर पिया का गाँव है 

दूर बहुत  दूर सखि  मेरे  पिया  का गाँव है
राह में ना कोई पनघट ना पीपल की छाँव  है

सावन की ऋतू जब  जब  है  आई
डसी है  दिल को  और भी  तन्हाई
पिया क्या कभी मेरी याद ना आई
आने में फिर काहे इतनी देर लगाईं
ठहर सा गया जैसे मन का बहाव है
दूर बहुत दूर मेरे पिया का गाँव है

जब से गए है मेरे पिया  परदेस
ना कोई चिट्ठी ना कोई सन्देश
कुछ तो खबर दो कब आओगे
इस बिरहन को कितना तड़पाओगे 
जीवन में जैसे आ गया कोई ठहराव है
दूर बहुत  दूर मेरे पिया का गाँव है

क्या युहीं गुज़रेगी अब सारी उमरिया
ना दिन होंगे सुहाने और ना ही रतियाँ
ताना मारती है अब तो सारी सखियाँ
दिल का गया करार और आँखों से निंदिया
आ जाओ पिया जीवन में बढ़ रहा उलझाव है
दूर   बहुत   दूर  सखि मेरे पिया का गाँव है 
राह में ना कोई पनघट ना पीपल की छाँव है