मंगलवार, 22 जून 2010

तू मेरे सामने हैं

अब और कहीं मैं क्या देखूं
जब तू मेरे सामने हैं
अब राहों के बारे में क्यों सोचूं
जब मंजिल मेरे सामने हैं

अब सितारों के बारे में क्यों सोचूं
जब चाँद खुद मेरे सामने है
अब कड़क धूप से क्यों घबराऊं
जब तेरी जुल्फों के साये मेरे सामने हैं

अब बहारों का इंतज़ार मैं क्यों करूँ
जब तेरा नजारा मेरे सामने है
अब ग़मों की मैं परवाह क्यों करूँ
जब तेरा हाथ मेरे हाथ में है

अब कोई ख्वाब मैं क्यों देखूं
जब हकीकत मेरे सामने हैं
नाशाद किसी महफ़िल में क्यों जाऊं
जब ग़ज़ल खुद मेरे सामने हैं