सोमवार, 18 अप्रैल 2011

मेरा गाँव कहीं खो गया है 


कभी कभी मुझे लगता है जैसे 
सुख तो मिला पर चैन खो गया है 

दोस्त तो मिलें है हमें बहुत मगर 
अपनापन जैसे कहीं खो गया है 

हर ऐश-ओ-आराम मिल गए हमें 
मगर मन जैसे कहीं भटक गया है 

दौलत शोहरत बहुत मिली सभी को 
इंसान का मोल लेकिन घट गया है
शहरों की चकाचोंध में ऐ नाशाद 
मेरा गाँव कही जैसे खो सा गया है 
मेरा गाँव कहीं जैसे खो सा गया है 


शनिवार, 9 अप्रैल 2011

ये ना जाने कोई 

कितना लम्बा ये सफ़र है
ये ना जाने कोई
कहाँ तक अब ये डगर है
ये ना जाने कोई

कौन देखेगा कल की सहर
ये ना जाने कोई
किसकी है ये आखिरी शब
ये ना जाने कोई

कब तक हवाएं साथ है
ये ना जाने कोई
कब तक सूरज में आग है
ये ना जाने कोई

कब तक चाँद में शीतलता है
ये ना जाने कोई
कब तक सितारों का कारवाँ है
ये ना जाने  कोई

कब तक कदमों की चाल है
ये ना जाने कोई
कब तक सभी को ये आस है
ये ना जाने कोई

कब तक हम यहाँ है
ये ना जाने कोई
कब तक ये जहां है
ये ना जाने कोई

कब तक  दुआओं में असर है
ये ना जाने कोई
कब तक उसकी हम पर नज़र है
ये ना जाने कोई

शुक्रवार, 1 अप्रैल 2011

दरख़्त पर तेरा नाम 

उस दरख़्त पर मैंने तेरा नाम लिखा था 
जो अब शायद सुख चुका है 
नहीं आते उस पर अब हरे पत्ते 
नहीं बैठते उस पर अब परिंदे
नहीं आता कोई अब उसकी छाँव के लिए
तुम भी नहीं देखते उस सूखे दरख़्त को 
एक  नाकामयाब मौहब्बत के निशानी को 
नाशाद मैं आज भी वहीँ खडा हूँ 
वो सूखा दरख़्त भी वहीँ खडा है 
लेकिन उस पर तुम्हारा नाम आज भी खुदा है
मैं हर रोज पढता हूँ तुम्हारे नाम को
मैं हर रोज देखता हूँ उस दरख़्त को 
जो शायद एकमात्र निशानी है हमारी मौहब्बत की 
वो दरख़्त जिस पर मैंने तुम्हारा नाम लिखा था 
तेरे नाम के साथ अपना मुकद्दर भी लिख दिया था