गुरुवार, 13 मई 2010


यह रचना मेरे सबसे ज्यादा करीब है. मेरा बचपन राजस्थान के बालोतरा तहसील में पचपदरा साल्ट क्षेत्र के अंतिम रेलवे स्टेशन पर बसे गाँव में बीता. उस गाँव में बिजली नहीं थी. कुल जमा दस-पंद्रह घर थे और शायद पचास के आस पास लोग. एक छोटा सा मंदिर. एक स्कूल जिसमे चौथी कक्षा तक की शिक्षा व्यवस्था थी. गाँव से कुछ दूर एक तालाब था. हमारे घर के करीब एक सूखा हुआ पेड़ हुआ करता था. मैं अपने दादा-दादी के साथ वहाँ एक साल की उम्र से लेकर आठ साल की उम्र तक रहा. 
मैं आज भी सपनों में उस गाँव को देखता हूँ. आज भी मैं उस गाँव से अपनी करीबी महसूस करता हूँ. एक बार उस गाँव को जाकर देखना चाहता हूँ. लेकिन अब वो गाँव रेल-मार्ग से कट चुका है. वहां शायद कोई सड़क भी नहीं जाती. लेकिन मेरी आरज़ू है कि कम से कम एक बार मैं वो गाँव देखूं. ये रचना मेरी इस कल्पना की मात्र एक तस्वीर है. मुझे शायद ऐसा ही अहसास होगा जब मैं उस गाँव को देखूंगा. मैं नहीं जानता कि कब  मैं उस गाँव पहुंचुंगा लेकिन जाना ज़रूर चाहता हूँ. यूँ तो इंसान कई आरजूएं करता है लेकिन मेरी आरज़ू है कि उस गाँव को फिर से देखने की जिसे मैं आज से करीब सैंतीस साल पहले अकेला छोड़ आया था. आज भी वो मेरा गाँव मेरा इंतज़ार कर रहा है. मेरा बचपन मेरा इंतज़ार कर रहा है. मेरी यादें मेरा इंतज़ार कर रही है. आज भले ही चाहे कोई वहां रहता ना हो लेकिन ना जाने ऐसा क्यूँ लगता है की कोई वहां मेरा इंतज़ार कर रहा है.



       अपना गाँव

बरसों बाद अपने गाँव पहुँचा तो रात भर
बचपन के सारे गीत मुझे सुनाती रही हवा

गाँव उजड़ चुका था हर दोस्त बिछुड़ चुका था
फ़िर भी इन सभी का अहसास कराती रही हवा

हर दोपहर का साथी वो बरगद सूख चुका था
उसके सूखे ठूंठ से टकराती फिरती रही हवा

सावन रूठ चुका था तालाब सूख चुका था
कागज़ की कश्तियों को ख़ुद ही उडाती रही हवा

वो आँगन सूना था जहाँ दादा दादी का बसेरा था
नाम उनका मेरे संग पुकारती रही हवा

मैं अकेला ही खड़ा था बचपन के उजडे गाँव में
नाम मेरा पुकारती और मुझे ही ढूंढती रही हवा

उजडा गाँव फ़िर से बसाकर क्या नाशाद यहीं रहोगे
अपने सवाल के ज़वाब का इंतज़ार करती रही हवा