शुक्रवार, 1 अप्रैल 2011

दरख़्त पर तेरा नाम 

उस दरख़्त पर मैंने तेरा नाम लिखा था 
जो अब शायद सुख चुका है 
नहीं आते उस पर अब हरे पत्ते 
नहीं बैठते उस पर अब परिंदे
नहीं आता कोई अब उसकी छाँव के लिए
तुम भी नहीं देखते उस सूखे दरख़्त को 
एक  नाकामयाब मौहब्बत के निशानी को 
नाशाद मैं आज भी वहीँ खडा हूँ 
वो सूखा दरख़्त भी वहीँ खडा है 
लेकिन उस पर तुम्हारा नाम आज भी खुदा है
मैं हर रोज पढता हूँ तुम्हारे नाम को
मैं हर रोज देखता हूँ उस दरख़्त को 
जो शायद एकमात्र निशानी है हमारी मौहब्बत की 
वो दरख़्त जिस पर मैंने तुम्हारा नाम लिखा था 
तेरे नाम के साथ अपना मुकद्दर भी लिख दिया था