बुधवार, 31 मार्च 2010

तुम्हें पहचान लेता हूँ 

चन्दन सी महक है तुम्हारी
मैं दूर से ही जान लेता हूँ
कदमों की आहट से तुम्हारी
मैं तुम्हें पहचान लेता हूँ

तुमने किया है चुपके से याद मुझे
चमकते चाँद से जान लेता हूँ
मेरी तस्वीर को अकेले में छुआ है तुमने
अपनी बढती धड़कन से जान लेता हूँ

शरमा रही हो मन ही मन में
लचकती डालीयों से जान लेता हूँ
दबे होठों से लिया है तुमने मेरा नाम
हवाओं की खुशबू से जान लेता हूँ

मैंने तुमसे किया है प्यार
मैं तुम पर अपनी जान देता हूँ
खुदा ने तुम सा कोई और ना बनाया
मैं उसे अपना सलाम देता हूँ

हर आशिक अपनी महबूबा को दे तुम्हारा नाम
मैं आज ये ऐलान करता हूँ
मेरा दिल, मेरा प्यार , मेरी हर आरज़ू
आज मैं तुम्हारे नाम करता हूँ

चन्दन सी महक है तुम्हारी
मैं दूर से ही जान लेता हूँ
कदमों की आहट से तुम्हारी
मैं तुम्हें पहचान लेता हूँ

मंगलवार, 30 मार्च 2010

आँखें मेरी सजल हो गई 

तुम क्या सामने आये प्रियतम
मैं ऐसी भाव-विव्हल हो गई कि
आँखें मेरी सजल हो गई

जाने कितने ही सावन आये
संग अपने तेरी यादें ले लाये
घने बादल फिर खूब बरसाए
पर ऐसी बरसात कभी ना हुई
तुम क्या सामने आये प्रियतम
आँखें मेरी सजल हो गई

तुम्हे खोजा मैंने सितारों में
तुम्हे पुकारा मैंने यादों में
करते करते याद तुम्हे प्रियतम
मैं ना जाने जैसे कहीं खो गई
तुम क्या सामने आये प्रियतम
आँखें मेरी सजल हो गई

अब ना कभी तुम होना दूर
मेरे ही सामने अब रहना तुम
मुझे जो भी ख़त लिखे थे तुमने
मेरे लिए जैसे वो ही ग़ज़ल हो गई
तुम क्या सामने आये प्रियतम
आँखें मेरी सजल हो गई

तुम बिन रहा ना जाए 

ढल गई है शाम अब
पंछी भी घर लौट आये
लौट आओ तुम भी सजना
अब तुम बिन रहा ना जाए

तुम्हारे वादे पर  मैं  जी रही हूँ
तुम्हारे नाम की साँसें ले रही हूँ
बहुत दूर है गाँव तुम्हारा
अब एक कदम भी चला ना जाए
लौट आओ तुम भी सजना
अब तुम बिन रहा ना जाए

तुम्हारी राहों में फूल बिछाए बैठी हूँ
तुम्हारी यादों के दिए जलाये बैठी हूँ
बहारों के मौसम भी है अब आनेवाले
फिर से चलने लगी है पुरकेंफ़ हवाएं
लौट आओ तुम भी सजना
अब तुम बिन रहा ना जाए

अब ना कभी मैं तुम्हें दूर जाने दूँगी
कैसी भी हो राहें संग तुम्हारे चलूंगी
फिर से छाएंगे बादल और बरसेंगी बरखा
इस बार भी सावन कहीं सूखा ना चला जाए
लौट आओ तुम भी सजना
अब तुम बिन रहा ना जाए 

सोमवार, 29 मार्च 2010

ना जाने तुम कौन हो 

ना जाने तुम कौन हो
जो इस तरह मेरे दिल में समां गए हो
जो इस तरह मेरी दुनिया बदल गए हो

ना जाने तुम कौन हो
जो मेरी  साँसों को  महका  गए  हो
जो मेरी आँखों में आकर बस गए हो

ना जाने तुम कौन हो
जो मेरे होठों को  एक  नई मुस्कान दे गए हो
जो मेरे गालों की लालिमा को और बढा गए हो 

ना जाने तुम कौन हो
जो फागुन के रंगों को और भी रंगीन कर गए हो
जो पतझड़ में भी हर तरफ बहारें लेकर आये हो

ना जाने तुम कौन हो
जो मुझे अब  हर तरफ  नज़र आने लगे हो
जो मुझे ख्वाबों में भी आकर सताने लगे हो

ना जाने तुम कौन हो
जो अब  मुझ को  मुझ ही से  छीन रहे हो
जो ना जाने किस बंधन में मुझे बाँध रहे हो 

ना जाने तुम कौन हो
ना जाने तुम कौन हो




















कजरारी आँखों वाली लडकी 


वो कजरारी आँखों वाली लड़की 
अब भी मुझे याद आती है 
उसकी कभी ना ख़त्म होनेवाली बातें 
अब भी मुझे याद आती है 


मैं चाहे सुनूँ ना सुनूँ 
वो अपनी हर बात बताती थी 
मैं चाहे मानूँ ना मानूँ
वो हर बात पर सलाह देती थी 


मैं जब भी छत पर पढने जाता था 
वो कंकर फेंक कर सताती थी 
मैं जब भी गहरी सोच में होता था 
उसे मेरी चिंता सताती थी 


जब भी मेरे इम्तिहान नज़दीक आते थे 
वो मेरे लिए रोज़ दुआएं मांगती थी 
जब भी देखती थी मेरा खिला चेहरा 
उसके चेहरे पर भी चमक आ जाती थी 


जब मैं वापस लौट रहा था 
उसका चेहरा मुरझाया हुआ था 
उसकी कजरारी आँखें नाम थी 
उसके कदम लडखडा रहे थे 
वो कुछ कहना चाह रही थी 
मगर उसकी बेहिसाब सिसकीयाँ 
उसे शायद रोक रही थी


मैं  वापस घर लौट आया 
मगर आज तक उसे भुला नहीं पाया 


उसकी सिसकीयाँ आज भी मुझे सुनाई देती है 
उसकी आवाज़  आज  भी  मुझे सुनाई देती है


उसकी  हंसी मुझे हर वक़्त सुकून देती थी 
उसकी बातें मुझमे नया जोश भर देती थी 


मैं उसे शायद समझ नहीं पाया 
मैं उसकी आँखों को पढ़ नहीं पाया 
उसके दिल की बात जान नहीं पाया 


वो क्यों मुझे देख खुश हो जाती थी 
वो क्यों मेरे लिए दुआएं मांगती थी 
वो क्यों मेरी हर ख़ुशी में शामिल हो जाती थी 


कहते हैं मोहल्ले के लोग 
वो मुझसे प्यार करती थी
मुझसे  बे इन्तेहा मौहब्बत करती थी 


आज लग रहा है मुझे 
वो शायद मुझसे प्यार करती थी 
हाँ वो मुझसे प्यार करती थी 
वो कजरारी आँखों वाली लड़की 
मुझसे प्यार करती थी 



रविवार, 28 मार्च 2010

वो शायद दीवाना था 

वो एक पागल लड़का
जो शायद दीवाना था
अक्सर मेरी गलीयों में
वो बेमतलब घूमा करता था
देखकर मुझे दरीचे में खड़ा
वो अक्सर मुस्कुराया करता था

शाम को छत पर आकर वो
मेरा नाम लिखी पतंगे उड़ाता था
ना जाने खाली सफहों पर
कुछ लिखता और खुद ही पढ़कर
मन ही मन जैसे शरमाया करता था
वो एक पागल लड़का
जो शायद दीवाना था

मुझसे मिलने की वो
अक्सर कोशिश करता था
पर मेरे सामने आते ही वो
ना जाने कहाँ छुप जाता था
वो एक पागल लड़का
जो शायद दीवाना था

मैं उसकी हर बात पर
हंस कर रह जाया करती थी
मेरे हंसने पर वो ना जाने क्यों
कुछ खोया खोया सा हो जाता था
वो एक पागल लड़का
जो शायद दीवाना था

एक अरसा बीत गया
वो अब दिखाई नहीं देता
मैं उसे अक्सर याद करती हूँ
ना जाने वो कहाँ खो गया
अक्सर उसकी बातें और
वे छोटी मुलाकातें याद करती हूँ

उसका वो मासूम चेहरा
अब भी मेरी आँखों में रहता है
कहती है मेरी सब सहेलीयां
वो मुझसे प्यार करता था
वो एक पागल लड़का
जो शायद दीवाना था 

लेकिन ना जाने वो क्यों
कुछ भी कहने से डरता था
अब अक्सर सोचती रहती हूँ
वो ऐसा क्यों करता था
वो एक पागल लड़का
जो शायद दीवाना था 


तुम अच्छे लगते हो 

तुम अच्छे लगते हो
मुझे तुम अच्छे लगते हो

जब भी मुस्कुराते हो तो
और भी अच्छे लगते हो

जब भी रूठ जाते हो तो
बहुत अच्छे लगते हो

जब भी गुस्साते हो तो
बहुत ही अच्छे लगते हो

लेकिन जब भी शर्माते हो तो
सबसे अच्छे लगते हो

तुम अच्छे लगते हो
मुझे तुम अच्छे लगते हो




शनिवार, 27 मार्च 2010

तेरा चेहरा नज़र आता है 

जब भी देखता हूँ मैं आईना
मुझे तेरा चेहरा नज़र आता है
मेरी मुस्कान में सनम अब
मुझे तेरा प्यार नज़र आता है

कोई भी लेता हूँ जब मैं नाम
तेरा ही नाम जुबां पर आता है
जिस गली से भी गुजरूँ मैं
मुझे तेरा ही घर नज़र आता है

जब भी किसी से करता हूँ बातें
मुझे तेरी आवाज़ सुने देती है
जब भी खनकती है कोई पायल
मुझे तेरी आहट सुनाई देती है

जब भी शाम को जाता हूँ छत पर
मुझे अपनी मुलाकातें याद आती है
जब भी झूम के बरसता है सावन
मुझे हमारी मोहब्बत याद आती है

जब भी पढता हूँ तेरे लिखे ख़त
मुझे उनमे से तेरी खुशबू आती है
देखता हूँ मैं जब भी तेरी तस्वीर
मुझे मेरा चेहरा नज़र आता है 

शुक्रवार, 26 मार्च 2010

भूल ना जाना 
















पीपल की छाँव को
बचपन के गाँव को
सावन के झूलों को
कागज़ की नांव को
भूल ना जाना

बाबा की डांट को
मां की लोरीयों को
दादा की सीख को
दादी की दुलार को
भूल ना जाना

धुल उड़ाती गलीयों को
फूलों पर बैठी तितलीयों को
खेतों में लहराती फसलों को
पनघट पर बतियाती सखियों को
भूल ना जाना

बचपन के यारों को
मुस्कुराते दरीचों को
अपनों की महफ़िलों को
सपनों की दुनिया को
भूल ना जाना

शहर की भीड़ - भाड़ में
दौलत पाने की चाह में
रोज़ नई मंजिल की तलाश में
पुरानी सुहानी यादों को
भूल ना जाना

लोगों की भीड़ में कहीं खो ना जाना
खुद को ही कहीं भूल ना जाना
अपनों से दूर नहीं हो जाना
घर लौट आने की राह भूल ना जाना
" नाशाद " कहीं भटक ना जाना
जिंदगी को कहीं भूल ना जाना 


बुधवार, 24 मार्च 2010

ये ना जाने कोई 

कितना लम्बा ये सफ़र है
ये ना जाने कोई
कहाँ तक अब ये डगर है
ये ना जाने कोई

कौन देखेगा कल की सहर
ये ना जाने कोई
किसकी है ये आखिरी शब
ये ना जाने कोई

कब तक हवाएं साथ है
ये ना जाने कोई
कब तक सूरज में आग है
ये ना जाने कोई

कब तक चाँद में शीतलता है
ये ना जाने कोई
कब तक सितारों का कारवाँ है
ये ना जाने  कोई

कब तक कदमों की चाल है
ये ना जाने कोई
कब तक सभी को ये आस है
ये ना जाने कोई

कब तक हम यहाँ है
ये ना जाने कोई
कब तक ये जहां है
ये ना जाने कोई

कब तक  दुआओं में असर है
ये ना जाने कोई
कब तक उसकी हम पर नज़र है
ये ना जाने कोई



 
तू क्यों मौन है 

मैंने सुना था तू
हम सब को बनाता है
हम सब को तारता है 
हम सब को पालता है
हम सब को खुश रखता है
हम सब का अन्नदाता है
हम सब का घर बसाता है
हम सब के दुःख दूर करता है
हम सब के बिगड़े काम बनाता है
हम सब की राहें आसान करता है
हम सब को भवसागर पार कराता है

पर अक्सर मैंने
लोगों को भूख से तड़पते  देखा है
लोगों को खून के आंसू बहाते देखा है
लोगों के घर उजड़ते देखा है
लोगों को खाली पेट सोते देखा है
लोगों को रोते बिलखते देखा है
लोगों को ग़मों के समंदर में डूबते देखा है
लोगों को टूटते बिखरते देखा है
लोगों को राहों में भटकते बिछुड़ते देखा है
लोगों को बिना कारण मरते देखा है
लोगों को अपनों के लिए तरसते देखा है
लोगों को छोटी सी ख़ुशी के लिए तरसते देखा है

ये मैंने तेरा कैसा संसार देखा है
क्या सभी की किस्मत में तूने यही सब लिखा है
क्या सचमुच ये संसार तेरी ही देन है
क्या सभी जिंदगी जैसे लम्बी काली रैन है

मेरे इन सवालों पर तू क्यों मौन है
बता तू क्यों मौन है

मंगलवार, 23 मार्च 2010

वो नहीं मिला 

यूँ तो जिंदगी में हमें बहुत कुछ मिला
मगर जो चाहा था हमें वो नहीं मिला

खोजते रहे मगर मंजिल का रास्ता नहीं मिला
जीवन भर यही  बस  चलता  रहा  सिलसिला

ना कह सकता हूँ खुद से कि हमें मौका नहीं मिला
अपनी बात कहने  का  हमें हौसला  ही नहीं मिला

किस्मत का साथ तो "नाशाद" हमें हर वक्त ही मिला
खुद ही ना दे सके अपना साथ अब किससे करें गिला


रविवार, 21 मार्च 2010

मैं 

आँखें है कहीं खोई खोई
चेहरा है उलझा उलझा
जिंदगी का जैसे मसला कोई
आज तक हो नहीं सुलझा

दिल कहीं रहता है मेरा
धड़कन कहीं और है खोई
मंजिल है सामने खड़ी पर
रास्ता अभी तक कोई नहीं सूझा

खयाल एक तरफ जा रहे
इरादे चल दिए हैं और कहीं
कदम डगमग डगमग हो रहे
जीवन का हर एक तार है उलझा

जिस्म बिखरा है टुकड़े टुकड़े
जुड़ेगा कैसे ये ना जाने कोई
रातें होती है सभी की काली
यहाँ दिन भी है उलझा उलझा

आँखें है कहीं खोई खोई
चेहरा है उलझा उलझा 
जिंदगी का जैसे मसला कोई 
आज तक हो नहीं सुलझा 


गुरुवार, 18 मार्च 2010

गरीबों का मज़ाक उड़ाती मायावती 

पिछले दो दिनों से मायावती ने जो कुछ भी किया है वो सिर्फ और सिर्फ गरीबों का मज़ाक उड़ाया है. जिस देश में आज भी लगभग बीस फीसदी लोग दो वक्त कि रोटी भी ठीक ढंग से नहीं जुटा पाते. लगभग तीस फीसदी लोगों के पास अपने तन को ठीक ढंग से ढकने के लिए कपडे नहीं है ; एक तिहाई जनता के पास अपना कोई मकान नहीं है और बेरोजगारी को कोई हिसाब नहीं है औए भ्रस्टाचार की फांस दिन दूनी रात चौगुनी कसती जा राही है   उस देश के सबसे बड़े प्रदेश की मुख्यमंत्री अगर ऐसी हरकत करे तो ये बड़े ही शर्म की बात है. कहने को वो खुद को दलित की बेटी कहती है लेकिन सारा खेल दौलत का ही खेलती है. खुले आम लोगों से चंदा लेने में इन्हें कोई शर्म महसूस नहीं होती. कृपालुजी महाराज के आश्रम  में हुई भगदड़ से मरे लोगों को मुआवजा ठुकराते हुए उसने यह कहा कि सरकारी खजाने में पैसे नहीं है और कल की रैली पर करोड़ों खर्च  हुए हैं.  ये रुपये कहाँ से आये. बरेली जल रहा है .कत्ले आम मचा हुआ है लेकिन मायावती नोटों की माला पहनने में और अपना स्वागत - सत्कार कराने में मशगूल है . मुख्यमंत्री के तलुए चाटने वाले प्रदेश के मंत्री उपर से यह कह  रहे हैं कि अब वे हमेशा बहनजी ( ? ) को नोटों की ही माला पहनाएंगे. हद हो गई पद लोलुपता और जी हुजूरी की.
इसी मायावती ने कभी ब्राह्मणों को लात मारने की बात कही थी और आज वही ब्राह्मण वर्ग उसी मायावती के पैरों में शरण लिए हुए हैं. कम से कम ब्राह्मन समाज से यह उम्मीद किसी को भी ना थी . यह महिला किसी भी सरकारी कर्मचारी को जब चाहे तब थप्पड़ मार देती है और कोई चूं तक नहीं करता. इस प्रदेश के मंत्री और एम् एल ए खुले आम सरकारी कर्मचारियों को धमकाते हैं और कभी कभी उनका क़त्ल भी कर देते हैं और प्रदेश कि जनता खामोश देखती रह जाती है. विरोधी पार्टीयाँ भी केवल एक दो दिन थोडासा हंगामा करने के पश्चात वापस जैसे कि सो जाती है. 
आजकल के नेता कितने ढीठ और उद्दंड हो चुके हैं कि उन्हें किसी बात की कोई फ़िक्र नहीं है ; कानून  का कोई डर नहीं है. कहते हैं ना कि नंगे को किस बात की शर्म.  हमारे नेता तो इसके भी एक कदम आगे निकल चुके हैं . वे नंगे होकर सडकों पर उतरते हैं और लोगों  को यह कहते हैं कि अपनी आँखें बंद कर लो हम नंगे होकर निकल रहे हैं .
भारत का लोकतंत्र ऐसे नेताओं के हवाले रहा तो फिर इस देश का भगवान् ही मालिक है . करोड़ों रुपये खर्च कर के खुद के पुतले बनवाना हमारे देश की लोकतंत्र व्यवस्था पर एक बहुत बड़ा सवालिया निशान लगाता है. गंगा तथा यमुना जैसी महान नदीयाँ जिस प्रदेश में एक गंदे नाले का रूप ले चुकी है उस प्रदेश की मुख्यमंत्री के ऐसे कृत्य गरीब लोगों की बेबसी के साथ लिया गया एक क्रूर मजाक है. उत्तर प्रदेश में रोजगार के अवसर ना के बराबर है तभी तो हर साल लाखों लोग देश के अन्य दूसरे राज्यों में जा जाकर रोजगार तलाश रहे हैं और मायावती अखबारों में करोडो रुपये खर्च कर के विज्ञापन देती है कि राज्य का चौमुखा विकास हो चुका है और जनता खुशहाल है . 
क्या यही भारत देश का भविष्य है ? क्या अब भारत इन भ्रष्ट और उद्दंड नेताओं का गुलाम हो चुका है ? क्या इस देश की जनता जो पहले अंग्रेजों की गुलाम थी और  अब इन नेताओं की  गुलामी हमेशा के लिए करती रहेगी ? इन सवालों का जवाब जनता को खुद तलाशना होगा और खुद ही कुछ करना होगा क्योंकि हम किसी भी राजनितिक दल से यह उम्मीद नहीं कर सकते कि वो इस व्यवस्था में कोई सुधार ला पायेगा. 

मंगलवार, 16 मार्च 2010

दूर बहुत सवेरा है

रात बहुत अंधियारी है
और दूर बहुत सवेरा है
किस तरह आगे बढूँ
फिर आफतों ने आ घेरा है

टूट गए हैं ख्वाब सभी
उम्मीदों ने भी दामन छोड़ा है
कितना खुद पर आंसू बहाऊँ
जितना भी बहाऊँ वो थोडा है
जब भी कभी मैं आगे बढा हूँ
नाकामीयों ने रास्ता रोका है
किस तरह आगे बढूँ
फिर आफतों ने आ घेरा है

मंजिलें सब ओझल हो गई
रास्ते भी कहीं खो गए
कभी  कभी लगता है अब तो
अपने ख्वाब भी पराये हो गए
नींद नहीं आती रातों में
फिर यादों ने आ घेरा है
रात बहुत अंधियारी है
और दूर बहुत सवेरा है

आंसुओं से जाम भर गए
फिर भी प्यास नहीं बुझी
खुद को बन लिया परवाना
पर हर शम्मा है बुझी बुझी 
बिन पिए ही कदम लडखडा गए
अब संभलना मुश्किल लगता है

किस तरह आगे बढूँ
आफतों ने आ घेरा है
रात बहुत अंधियारी है 
और दूर बहुत सवेरा है


सोमवार, 15 मार्च 2010

गुढी पाढवा : भारत का राष्ट्रीय नव वर्ष 

गुढी पढवा भारतीय नव वर्ष घोषित किया जाना चाहिए . भारत के अधिकाँश हिस्सों में इसी दिन से नया साल आरम्भ हुआ माना जाता है . हम लोग १ जनवरी को नया साल मनाते हैं जो कि  अंतर्राष्ट्रीय नव वर्ष है . हमारा भारत  एक विशाल और समृद्ध देश है . इसका इतिहास सबसे पुराना है . ये एक बड़े खेद की बात है कि  हमारे देश का राष्ट्रीय नव वर्ष कोई नहीं है . ये बात अलग है कि हमारे  भिन्न भिन्न राज्यों में भिन्न भिन्न दिन नया साल मनाया जाता है लेकिन राष्ट्रीय नया साल तो गुढी पडवा के दिन मनाया जा ही सकता है . हमारे पुराणों में भी इस बात के स्पष्ट संकेत मिलते हैं कि चैत्र माह की पहली तिथि से नया साल आरम्भ होता है .इस दिन से नौ दिनों तक नवरात्र मनाया जाता है .




इस बात पर सहमति बनाई जाये और गुडी पाढवा को भारतीय नव वर्ष दिन घोषित किया जाए.


हाथ की ये लकीरें 

कहीं लेकर नहीं जाती है  हमारी हाथ की ये लकीरें
किस्मत  नहीं संवारती  है  कभी हाथ की ये लकीरें

खुद ही खोज लो अपनी मंजिल  अगर पाना है
कभी राह  नहीं बतलाती है  हाथ की ये लकीरें

कभी ना समझ लेना इन्हें तुम अपनी तकदीरें
खुद ही आपस में उलझी है हाथ की ये लकीरें

सपनों  को तोडती है  इरादों  को झकझोरती है
भावनाओं से अक्सर खेलती है हाथ की ये लकीरें

ख़्वाबों में ही रहती है ये हकीकत नहीं बनती कभी
हाथ मलने को मजबूर करती है हाथ की ये लकीरें

ना कभी करना ऐतबार ना बांधना कभी तुम उम्मीदें
"नाशाद"  तुम्हें कर देगी  बरबाद हाथ की ये लकीरें   


रविवार, 14 मार्च 2010

मैं तो मीरा हो गई 

तेरी यादों का ज़हर पी पीकर साजन
मैं तो मीरा हो गई
तुम ना कभी बन सके श्याम साजन पर
मैं तो मीरा हो गई

एक पल भी ना कभी ऐसा बीता जब
याद मैंने तुम्हें ना किया
हर सांस तेरे नाम की ली मैंने
हर ख्वाब तेरा ही देखा मैंने
ओढ़ के तेरे नाम की चुनर साजन
मैं तो दीवानी हो गई
तुम ना कभी बन सके श्याम साजन पर
मैं तो मीरा हो गई

तेरी तस्वीर सदा रखी मैंने
अपने दिल के आईने में
खुद ने चुन लिए कांटे और
फूल तेरी राहों में बिछा दिए
तुम तक पहुँचने की चाह में
अपनी राह तक मैं भूल गई
तुम ना कभी बन सके श्याम साजन पर
मैं तो मीरा हो गई

हर आहट पर दिल मेरा धड़का
हर सावन में दिल मेरा तरसा
गर मिलते चार कहार मुझे तो
अपनी डोली खुद तेरे घर ले आती
तेरे आने के इंतज़ार में साजन
मेरी ज़िन्दगी अधूरी हो गई
तुम ना कभी बन सके श्याम साजन पर
मैं तो मीरा हो गई

तेरी यादों का ज़हर पी पीकर साजन
मैं तो मीरा हो गई
तुम ना बन सके कभी श्याम साजन पर
मैं तो मीरा हो गई



  

शुक्रवार, 12 मार्च 2010

भारतीय संस्कृति का मखौल उड़ाते आज के धारावाहिक  

इन दिनों अनगिनत धारावाहिक अलग अलग चैनलों पर दिखाए जा रहे हैं. इन धारावाहिकों में जिस तरह से हमारी संस्कृति का मखौल उड़ाया जा रहा है वो असहनीय है. सामजिक कुरीतियों को उजागर करना एक अच्छी बात है लेकिन उन कुरितेयों को बढा चढ़ा कर दिखाना कहाँ तक उचित है . दो दो माह तक एक ही घटना को दिखाना किसी की सहनशक्ति का इम्तिहान लेना है . कब कौनसे धारावाहिक की कहानी किधर मुड जाएगी यह शायद उस धारावाहिक का लेखक भी खुद नहीं जानता. बालिका वधु ; ना आना इस देस लाडो; बैरी पिया और ना जाने क्या क्या ? छह छह सात सात साल तक एक ही धारावाहिक को इस तरह से घसीटा जा रहा ही कि जैसे हमारे यहाँ अच्छी और स्वस्थ कहानीयों का अकाल पड़ गया हो. आजकल चल रहे धारावाहिकों में केवल सामाजिक समस्याओं और कुरीतियों को बढा चढ़ा कर दर्शाया जा रहा है. कभी कभी ऊब सी हो जाती है.   कभी कभी तो ऐसा लगता है जैसे आजकल के धारावाहिक केवल पैसा कमाने के लिए बनाए जा रहे हैं और दर्शकों से कोई लेना देना नहीं है . फ़िल्मी ड्रामों से भी कहीं  अधिक नाटकीयता आ गई है . एक ही परिवार के सदस्यों की आपस में बेहद गिरी हुई दुश्मनी बतलाना लेखकों और निर्माता - निर्देशकों के दिमागी दीवालियापन का सबूत है .भारतीय नारी का जिस तरह से चरित्र हनन किया जा रहा है वो बरदाश्त की हद से बाहर है . कब कौनसी औरत किस पुरुष की पत्नी बनने वाली है कोई नहीं बता सकता. कभी  कभी तो कहने इतना भटक जाती है कि लेखक खुद ही अपने को भटका हुआ महसूस करने लग जाता  है और आखिर में तंग आकर किसी पात्र को या तो बिना मतलब मार डालता है या उसकी याददाश्त को मिटा देता है .
बात बात पर सडकों पर उतरने वाले तमाम महिला संघटन कहाँ है ?  महिला आयोग भी जैसे सो रहा है ? हर धारावाहिक में एक एक नारी का दो दो पुरुषों से सम्बन्ध बताना भारतीय संस्कृति का मखौल उड़ाना नहीं है तो और क्या है ?  जिस देश में नारी को देवी मना जाता है उस देश  में नारी का यह अपमान भारतीय नारी किस तरह से सहन कर रही है ये भी सोचने वाली बात है . 

क्या हमारे चैनलों के मालिक व्यवसाय को लेकर इतने गिर चुके हैं कि पैसे कमाने के लिए वो भारतीय संस्कृति को पूरी तरह से तोड़ मरोड़ कर दिखने पर आमादा है . विश्व हिन्दू परिषद् ; बजरंग दल , श्री राम सेने  जैसे तथाकथित सांस्कृतिक संघटन जो कि वेलेनटायन  डे मनाने पर पूरे देश में हाय तौबा मचाते हैं वो इस तरह के धारावाहिकों पर खामोश क्यों है ? एक तरफ ये संघटन खुद को भारतीय संस्कृति का ठेकेदार समझते हैं और खुद ही कहते हैं लेकिन इस चरित्र हनन पर इनकी चुप्पी हास्यास्पद है और संदेहजनक भी है. बात बात पर संस्कृति कि दुहाई देने वालों का दोमुंहापन उनकी भी असलियत दिखला रहा है . 

इन धारावाहिकों का विरोध इसी इलेक्ट्रोनिक मीडिया से ही संभव है. लेकिन यहाँ भी निराशाजनक स्थिति है . तमाम न्यूज़ चैनल भी इन धारावाहिकों को बढा चढ़ा कर दिखलाते हैं. न्यूज चैनल को अगर बिना मेहनत मसाला मिल जाय तो और क्या चाहिए . बुद्धिजीवी संघटन ही कुछ करें तो करें वर्ना स्थिति बहुत चिंताजनक है. आने वाली पीढ़ी इससे क्या शिक्षा लेगी  ये भी बहुत बड़ी चिंता का विषय है . हमारे साहित्य में अनगिनत अच्छी शिक्षाप्रद कहानियाँ और उपन्यास है लेकिन उन पर कोई धारावाहिक नहीं बनाता.  सब टीवी पर चल रहा लापतागंज धारावाहिक हमारे उत्कृष्ट साहित्य का श्रेष्ठ उदहारण है .शरद जोशी के व्यंग निबंधों पर आधारित यह धारावाहिक सभी उम्र के दर्शकों द्वारा पसंद किया जा रहा है. अच्छे प्रयास हमेशा सफल होते है बशर्ते ईमानदारी से कोई प्रयास तो करे.

हम उम्मीद करते हैं की आने वाले वक्त में लापतागंज जैसे प्रयास और भी होंगे और हमारी संस्कृति का बेहूदा मखौल उदानेवालों को मुंह की खानी पड़ेगी. 

शनिवार, 6 मार्च 2010

जीवन कैसे बीत गया

अक्सर कहता हूँ मैं खुद से
जीवन कैसे बीत गया
दिन बीते साल बीते और
बस यूहीं जमाना बीत गया
                                    अक्सर कहता हूँ मैं खुद से
                                     जीवन कैसे बीत गया

जीवन में पाया बहुत कम पर
बहुत कुछ जैसे खो दिया
मंजिल नहीं मिली अब तक पर
हर रास्ता जैसे खो दिया
                                    अक्सर कहता हूँ मैं खुद से
                                     जीवन कैसे बीत गया 

आनेवाला कल अच्छा होगा पर
इसी इंतज़ार में आज खो दिया 
फिर कभी कहूँगा उसे दिल की बात 
सोचते सोचते साथ उसी का छूट गया 
                                        अक्सर कहता हूँ मैं खुद से 
                                        जीवन कैसे बीत गया

अब कुछ ना बचा 
अब कुछ ना रहा 
अब केवल यादें बाकी है
सन्नाटे हैं चारों ओर 
बीती बातें गूंजती है 
जो चेहरे हमसे दूर हो गए 
वो चेहरे याद आते हैं 
बंद कर लो आंख्ने तो 
ख़्वाबों में आ जाते है 
दूर दूर फैला है एक शून्य 
अब मन बहुत अकेला है 

जितना जिसके करीब गया मैं 
वो उतना ही दूर हो गया 
कभी कभी लगता है जैसे 
खुद पर से भरोसा उठ गया 
अक्सर कहता हूँ मैं खुद से 
जीवन कैसे बीत गया 

जैसा चाहा था मैंने पर 
वैसा ना मेरा अतीत गया 
अक्सर कहता हूँ मैं खुद से
जीवन कैसे बीत गया 
जीवन कैसे बीत गया 



शुक्रवार, 5 मार्च 2010

काश वक्त वहीँ थम जाता 

काश वक्त वहीँ थम जाता
मैं तेरा हाथ ज़िन्दगी भर थामे खड़ा रहता
तेरे आँचल में सारी उम्र गुजार देता
तेरी आँखों में खुद को बसा लेता
तेरी जुल्फों में खुद को उलझा देता
तेरी मुस्कान पर मैं लुट जाता
तेरी बाहों में सारे गम भुला देता
काश वक्त वहीँ थम जाता

काश वक्त वहीँ थम जाता
तुझे अपने से दूर ना जाने देता
तेरे सारे गम मैं अपना लेता
अपनी सारी खुशीयाँ तुझे दे देता
तेरी राहों में फूल बिछा देता
तुझे अपनी मंजिल बना लेता
काश वक्त वहीँ थम जाता


मंगलवार, 2 मार्च 2010

गाँव बहुत याद आएगा

आ तो बसे हैं शहर में
गाँव बहुत याद आएगा
जब भी ढलेगी शाम तो
गाँव बहुत याद आएगा

ना कोई साथ चलेगा
ना कोई अपना लगेगा
जब देंगे लोग धोखा तो
गाँव बहुत याद आयेगा

माना के शहर में
मेले हैं बहुत मगर; जब
खुद को पाओगे अकेला तो
गाँव बहुत याद आएगा

खुशीयों में रहेगा
हर कोई संग यहाँ मगर; जब
छाएंगे ग़मों के बादल तो
गाँव बहुत याद आयेगा

उगते सूरज को
पूजते हैं यहाँ मगर; जब
डूबेगा जब तुम्हारा सूरज तो
गाँव बहुत याद आयेगा

आ तो बसे हैं शहर में
गाँव बहुत याद आएगा


सोमवार, 1 मार्च 2010

यादों की धूप 

यादों की तेज धूप में उनकी जुल्फों के साये हैं
इन्ही जुल्फों के साये  कई ज़माने बिताये हैं

जब भी बंद की है पलकें हमने उन्हें ही पाया है
आज भी इस कदर  वो  मेरे दिल  में समाये हैं

जब भी  उदास होकर  हम  छतों  पर लेटे हैं
बादलों के बीच आकर वो हमेशा मुस्कुराए हैं

काली स्याह रातों में हम जब भी राह भटकाए हैं
उनकी रोशन यादों ने राहों के चिराग जलाये है

सावन के भीगे मौसम में जब जब भी बादल छाए हैं
"नाशाद" करके याद उन्हें हमने  खूब आंसू बहाए हैं


  
एक पल ठहर जाओ

चले जाना फिर सदा के लिए
बस एक पल ठहर जाओ

तुम्हारी आँखों में झाँक तो लूं
अपनी किस्मत जान तो लूं
चले जाना फिर सदा के लिए
बस एक पल ठहर जाओ

जिसे कभी तुमने लिया था बड़े प्यार से
मेरे उस नाम को फिर से सुन तो लूं
कभी थामा था मैंने जिसे  जनम जनम के लिए
उस हाथ को एक पल के लिए थाम तो लूं

जिसे तुमने डाला था मेरे सिर पर बड़े प्यार से
उस आंचल में कुछ देर आंसू बहा तो लूं
दिल में बनाई थी मैंने जो तस्वीर तुम्हारी
उस तस्वीर को सदा के लिए मिटा तो लूं

जिनमे बांधा था तुमने मुझे हमेशा के लिए
उन बंधनों को मैं खुद खोल तो लूं
कभी जो तुमने लिखे थे मेरे लिए बड़े प्यार से
उन खतों को मैं आज तुम्हें लौटा तो दूं

कभी जो हमने किये थे जनम जनम साथ निभाने के
उन वादों से आज़ाद आज मैं तुम्हें कर तो दूं
जिसे रखा था अब तक सीने से लगाकर
तुम्हारे उस दिल को तुम्हे लौटा तो दूं

चले जाना फिर सदा के लिए
बस एक पल ठहर जाओ