वो मेरे होते जा रहे हैं
हालात अब हमारे बदलते नज़र आ रहे हैं
धीरे धीरे अब वो मेरे होते जा रहे है
हमें देखते ही उन्हें हम पर आता था गुस्सा
अब हमें देखकर वो धीरे से मुस्कुरा रहे हैं
उन्हें नहीं मालूम था कभी हमारे घर का पता
वो अब हमारी गलीयों की तरफ आ रहे हैं
वो हमें देखते ही कर लेते थे बंद हर दरीचा
वो खड़े अब उन्ही दरीचों में हमें निहार रहे हैं
ना करते थे वो कभी ज़िक्र अपनी महफिलों में
वहां अब वो नाशाद के शेर पढ़े जा रहे हैं
गुरुवार, 8 अप्रैल 2010
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4 टिप्पणियां:
बहुत खूब, लाजबाब !
किस तरह से कोई किसी का हो जाता है ये बात आप कुछ ज्यादा ही अच्छी तरह से जानते हैं / महसूस करते हैं. मुझे तो ये ही लग रहा है. कुछ दिन पहले भी आपने एक ऐसी हो ग़ज़ल लिखी थी. दोनों ही बहुत सुन्दर बन पडी है .
क्या लिखूं कैसे लिखूं
मेरे पास अल्फाज नहीं
अब कुछ भी आप समझ लेना
शायद कुछ लिखने के मैं काबिल नहीं
इस शेर को पढो तो ऐसा लगाना है जैसे कोई अचानक हमारी गलीयों में चला आया हो .बहुत अच्छी ग़ज़ल .
उन्हें नहीं मालूम था कभी हमारे घर का पता
वो अब हमारी गलीयों की तरफ आ रहे हैं
हद हो गई ......... इस ग़ज़ल में मुझे तो दाग साहब की लेखनी नज़र आ रही है. ज़फर साहब की महफिलें और वो मुशायरे. क्या खूब लिखा है. जबरदस्त लिखा है. शानदार लिखा है.
ना करते थे वो कभी ज़िक्र अपनी महफिलों में
वहां अब वो नाशाद के शेर पढ़े जा रहे हैं
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