शुक्रवार, 2 अप्रैल 2010
अब मैं जीना सीख गया हूँ
मैं अपनी धुन में रहता था
जो दिल चाहे वो करता था
मैं नहीं किसी की सुनता था
मैं यहाँ वहां भटकता था
सभी कहते थे कि मैं आवारा हूँ
जिसे कुछ ना मिला वो बेचारा हूँ
खुद अपनी किस्मत का मारा हूँ
नहीं किसी काम का मैं नाकारा हूँ
तुम क्या आई मेरे जीवन में
तुमने मुझे बदल डाला
प्रेम के दो घूँट पिला कर तुमने
बन दिया मुझे प्रेम मतवाला
अब मैं सब कुछ भूल गया हूँ
तेरी आँखों की झील में डूब गया हूँ
अब मैं तुम में खोया रहता हूँ
अब तेरी बातें ही सुनता हूँ
तेरी गलीयों में ही भटकता हूँ
तेरे ही सपने देखता हूँ
कहते हैं ये लोग सभी
मैं पहले भी आवारा था
और अब भी आवारा हूँ
मैं तेरे इश्क का मारा हूँ
मैं किसी का आशिक हूँ
और इसलिए नाकारा हूँ
अब दुनिया को कैसे समझाऊँ
अब लोगों को मैं क्या समझाऊँ
कैसे कहूँ मैं आवारा नहीं
कैसे कहूँ मैं नाकारा नहीं
मैं कितना अब बदल गया हूँ
मैं यहाँ वहां की बातें भूल गया हूँ
अब मैं संभालना सीख गया हूँ
किसी को अपना बनाना सीख गया हूँ
हर सांस को जीना सीख गया हूँ
मैं प्रेम करना सीख गया हूँ
मैं अब जीना सीख गया हूँ
मैं अब जीना सीख गया हूँ
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4 टिप्पणियां:
rightly said....ab mai jeena sikh gaya hoon...nice blog naresh
Sahi baat hai. Prem karna jo sekh gaya; wo jeena seekh gaya. Ye sandesh sabhi ko pahunche. Aapne ek bahut sachcha sandesh diya hai. Nafrat se kuch haasil nahi hota. Namste bhaisahabji
Nareshji
aapki kavita pahli baar padhi. bahut sundar likhtey hain aap. Shabd itne saral hotey hain ayr bhasha itni aasaan ki har koi samajh jaye. Mere man ko andar tak choo gayi hai.
bahut hi aachi or premras se bhari kavita h..
sunder h
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