हिज्र के दिन
जिनकी तस्वीर थी निगाहों में
उन्हें देखा सिर्फ हमने ख़्वाबों में
ना मिलूँगा अब मैं तुझे खजानों में
गर चाहता है तो ढूंढ खराबों में
ना जंगल में मिले ना ही बागों में
वे सूखे फूल जो रखे थे किताबों में
दरिया में रहकर भी हम रहे प्यासे
अब ढूंढते हैं हम आब सराबों में
शबो- रोजो- माहो-साल इसके आगे क्या गिनुं
तेरे हिज्र के दिनों की गिनती नहीं हिसाबों में
तुझसे मिलूं या बिछुड़ जाऊं हमेशा के लिए
गुज़र गई जिंदगी "नाशाद" इसी दोराहे में
शनिवार, 3 अप्रैल 2010
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5 टिप्पणियां:
बहुत खूब, लाजबाब !
दरिया में भी रहकर हम रहे प्यासे
अब ढूंढते है हम आब सराबों में
-- बहुत खूब . क्या जानदार बात लिखी है .यह हकीकत है की अक्सर इंसान अवसर हाथ से निकल जाने के बाद हमेशा पछताता है. एक और शाश्वत सत्य.
शबो- रोजो- माहो-साल इसके आगे क्या गिनुं
तेरे हिज्र के दिनों की गिनती नहीं हिसाबों में
ये शेर मुझे दे दिजीये भाईसाहब. करबद्ध प्रार्थना है एक छोटे भाई की.
ना जंगल में मिले ना ही बागों में
वे सूखे फूल जो रखे थे किताबों में
ऐसा वक़्त हर एक की जिंदगी में आता है जब वो छुप कर ही सही लेकिन किसी से प्यार करने लग जाता है. ये बात अलग है की हर कोई इजहार नहीं कर पाता और किसी को चुपचाप दिए गए तोहफे बाद में याद करता रहता है. मन खो गया इसे पढ़ा कर . आँखों के सामने कोई प्रेम कहानी घूमने लग गई.
अपना असली चेहरा कौनसा है जरा यह तो बतलाइये नाशाद साहब. गज़ले तो शानदार होती ही है ; कविताओं में भी उतना ही दम होता है. आप तो मीरा और श्याम पर भी कविता लिख देते हो. क्या पाता कोई और चेहरा भी है जो हमारे सामने आना बाकी है. बहुत ज़बरदस्त ग़ज़ल है. मज़बूत अलफ़ाज़ और ज़मीनी हकीकत. खूब बहुत खूब .
हासिल - ए - शेर है
दरिया में रहकर भी हम रहे प्यासे
अब ढूंढते हैं हम आब सराबों में
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