मंगलवार, 6 अप्रैल 2010

बचपन कहीं खो ना जाये



















किताबों के भारी बोझ तले
ऊंचे ख्वाबों के  दबाव तले
ये मासूम कहीं दब ना जाये 
इनका बचपन कहीं खो ना जाए 

तुम्हें अव्वल ही आना है 
नहीं किसी से पीछे रहना है 
हर माँ-बाप का यही कहना है 
माँ-बापों की इन इच्छाओं से 
ये मासूम कहीं सहम ना जाए 
इनका बचपन कहीं खो ना जाए 

सबसे ऊंचा हो ओहदा तुम्हारा 
सामान्य जीवन नहीं पालकों को गंवारा 
ढेर सा पैसा मोटर गाडी और एक बंगला न्यारा 
चाहतों की इस ऊंची दौड़ में
ये मासूम कहीं जीना ना भूल जाए 
इनका बचपन कहीं खो ना जाए 

खिलौने कम होते जा रहे 
मैदानी खेल लुप्त होते जा रहे
मैदान घरों में बदलते जा रहे 
किस्से कहानियों से बढ़ती दूरी से 
ये बचपन से कहीं दूर ना हो जाए 
इनका बचपन कहीं खो ना जाये 

आओ हम इनका बचपन बचाएं 
इनके चेहरे की मुस्कान लौटाएं 
इनके चेहरे की मासूमियत लौटाएं 

हम ही इनके दोस्त बन जाए 
संग इनके साबुन के बुलबुले उड़ायें 
आसमानों में ऊंची पतंगे उड़ायें 
संग इनके खेलें हम भी बचपन में लौट जाएँ   
इनको फिर से जीना सीखाएं 
इनको फिर से इनका बचपन लौटाएं
इनको फिर से इनका बचपन लौटाएं 
इनका बचपन कहीं खो ना जाएँ 


4 टिप्‍पणियां:

संजय भास्‍कर ने कहा…

तो सुबह सुबह ऐसी भावुक खुशबू लिए लेखनी को सलाम....

V Singh ने कहा…

आज के ज़माने का एक ऐसा सत्य जिसे सब जानते हैं लेकिन फिर भी कोई नहीं स्वीकारता. आपने स्पष्ट रूप से कह दिया और मां भी लिया की बच्चों पर दबाव बहुत ज्यादा है. एक सटीक बात कह दी आपने कविता के माध्यम से . बधाई

Unknown ने कहा…

बहुत ही भावुक गीत लिखा है. इन मासूमों को आपने बहुत ही अच्छी तरह से सम्जः है और उनकी आज की स्थिति का बेहतरीन चित्रण किया है. आप ज़िन्दगी के लगभग हर पहलू को छु लेते हैं.

Unknown ने कहा…

हम ही इनके दोस्त बन जाए संग इनके साबुन के बुलबुले उड़ायें आसमानों में ऊंची पतंगे उड़ायें संग इनके खेलें हम भी बचपन में लौट जाएँ इनको फिर से जीना सीखाएं इनको फिर से इनका बचपन लौटाएं


यह हकीकत है कि हम बच्चों से उनका बचपन छीन रहे हैं. ज़माना इतना बदल गया है कि यकीन ही नहीं होता. हमने कभी सोचा भी नहीं था कि ऐसा भी ज़माना आएगा. आपने सही कहा कि अगर हम इस ज़माने को नहीं बदल सकते तो कम से कम इनके दोस्त बनकर इनका बचपन थोडा बहुत लौटा सकते हैं. उम्दा लिखा है भाईजान.