याद को विदा कर आया
याद को तुम्हारी मैं आज विदा कर आया
तेरी यादों को मैं गंगा किनारे भुला आया
तेरे लिखे खतों को मैं आज जला आया
तेरे वादों को ताज के सामने भुला आया
तेरी तस्वीर को आज हवाओं में उड़ा आया
तेरी मुस्कान को मैं फूलों को लौटा आया
तेरी चाहत को मैं पैमाने में मिला आया
तेरी आहट को मैं वीरानों में छोड़ आया
अब ना सजेगी कभी तेरी महफ़िल ए सनम
"नाशाद" शम्मां-ए-महफ़िल ही बुझा आया
रविवार, 4 जुलाई 2010
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11 टिप्पणियां:
ताज के सामने किसी के वादों को भुलाना; आपने एक बिलकुल ही अलग तरह की बात कही है अपनी ग़ज़ल में. क्या कहने नाशाद साहब आपके. इस शेर में बड़ा वजन है.
बहुत बढ़िया!
खूबसूरत गज़ल..
क्या अंदाज तलाशा है मौहब्बत , महबूब और यादों-वादों को भुलाने का. भाईजान इस अंदाज़ से महबूब फिर से पिघल जाएगा और लौट आयेगा. शानदार ग़ज़ल.
बड़ी अच्छी ग़ज़ल है ->
तेरे लिखे खतों को मैं आज जला आया
तेरे वादों को ताज के सामने भुला आया
गंगा ; ताज इनका ग़ज़ल में अच्छा प्रयोग किया है आपने.
एक अलग तरह की ग़ज़ल लगी. ताज और गंगा का संगम पहली बार पढने के लिए मिला. बधाई.बहुत बधाई.
जनाब ; आप ने बड़ी अच्छी ग़ज़ल पेश की है. दिल के दर्द को आखिरी गहराई तक समझा है और अल्फाजों में ढाला है. बहुत खूब. आपका अंदाज़ बड़ा अच्छा लगा. शुक्रिया.
क्या ख़याल है. ताज के आगे वादों को दफ़न कर देना. गंगा में खतों को बहा देना. हुजुर इन्तेहा कर दे आपने दर्द-इ-दिल की. क्या कहें आप तो हो ही नाशाद. हालाँकि कल एक टिप्पणी में पिछले कुछ गीतों के हिसाब से एक भाई ने लिखा था नाशाद जी शाद हो गए हैं आजकल. लेकिन कुछ भी कहिये वो गीत बड़े अच्छे थे लेकिन दर्द से भरी ग़ज़लों का आपका एक अलग ही अंदाज़ होता है. उसका मुकाबला नहीं नाशाद भाई.
बेहद जानदार ग़ज़ल. चुन चुनकर उदहारण दिए हैं आपने मौहब्बत में टूटे दिल के दर्द को दर्शाने के . शुभ-कामना मेरे भरे हुए दिल से
ताज के सामने वादों को दफना दिया. लेकिन ताज तो दिलों को मिलाता है. ग़ज़ल खुबसूरत है लेकिन ताज का ज़िक्र गलत हो गया.
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