गुरुवार, 4 नवंबर 2010

मैं जब चलता हूँ

जुबां खामोश रहती है  और  निगाहें बात करती है
मैं उठकर चल देता हूँ मंजिल मिलने को तरसती है

हवाएं झूम जाती है और घटाएं खुलकर बरसती है
जब मैं मुस्कुराता हूँ सभी कलियाँ खिल जाती है  

धूप भी छाँव बन जाती है और तपिश सुकून दे जाती है 
देख लूँ आसमां की तरफ तो उस की मेहरबानी हो जाती है

जब भी कारवां-ए-नाशाद किसी भी गली से गुज़रता है  
हर दरीचा खुल जाता है गलीयाँ गुलज़ार हो जाती है 

शम्मां खुद रोशन हो जाती है हर महफ़िल जवां हो जाती है 
जब भी नाशाद की उस महफ़िल में ग़ज़लें गूँज  जाती है 


4 टिप्‍पणियां:

संजय भास्‍कर ने कहा…

नए बिम्बों का बड़ी ही खूबसूरती से भावाभिव्यक्ति में प्रयोग किया है .......बहुत अच्छी कविता.”
आपको और आपके परिवार को दीपावली की हार्दिक शुभकामाएं ...

संजय भास्‍कर ने कहा…

बहुत बढ़िया,
बड़ी खूबसूरती से कही अपनी बात आपने.....
फुर्सत मिले तो 'आदत.. मुस्कुराने की ' पर आकर नयी पोस्ट ज़रूर पढ़े .........धन्यवाद |

sandhyagupta ने कहा…

धूप भी छाँव बन जाती है और तपिश सुकून दे जाती है देख लूँ आसमां की तरफ तो उस की मेहरबानी हो जाती है

बहुत खूब.

किरण राजपुरोहित नितिला ने कहा…

itne badhiya darje ki gazal padhkar bahut accha laga.