सोमवार, 11 जनवरी 2010

                      काश कभी मैं समझ पाता


तुम्हारी आंखों में उठते सवालों को
हमारे दिल में उठती हुई  लहरों को
काश कभी मैं समझ पाता

उदास होती हुई उन शामों को
लम्बी होती हुई उन रातों को
काश कभी मैं समझ पाता

अधूरी लगती हर मुलाकातों को
होठों पर रूकती हुई उन बातों को
काश कभी मैं समझ पाता

हमारे दिल में बढती हुई उस घबराहट  को
मुलाकातों के लिए बढती हुई चाहतों को
काश कभी मैं समझ पाता

तुम्हारी आँखों में बरसते सावन को
हर  चेहरे  में  तुम्हारी  तलाश  को
काश कभी मैं समझ पाता

हर बात में तुम्हारे उस रूठ जाने को
मेरे मनाते  ही तुम्हारे मान जाने को
काश कभी मैं समझ पाता

तुम्हारी किताबों में लिखे मेरे नामों को
तुम तक ना पहुंचे मेरे उन पयामों को
काश कभी मैं समझ पाता

हमारी मुलाकातों पर उठती उंगलीयों को
मुझ पर हंसती तुम्हारी उन सहेलीयों को
काश कभी मैं समझ पाता

तुम्हारी गलियों की तरफ बढ़ते हमारे कदमों को
सुनते ही हमारा नाम तुम्हारा शरमाने को
काश कभी मैं समझ पाता

अलसाई हुई उन दोपहरों को
जलती हुई बरसात की बूंदों को
काश कभी मैं समझ पाता

अंतिम मिलन पर हमारी आँखों के सावन को
जो हम ना कह सके उन सभी बातों को
काश कभी मैं समझ पाता
काश कभी मैं समझ पाता

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