शनिवार, 3 अप्रैल 2010
खुदा को भी ले आऊँ
जिंदगी का ये गीत मैं यूहीं गाता चला जाऊं
हर किसी को मैं बस खुश रखता चला जाऊं
गर पड़े कभी पीना किसी दिन कोई ज़हर
बन के नीलकंठ मैं वो ज़हर भी पी जाऊं
गर मिले सभी को कोई भी तरह की सज़ा
बन के राम मैं हँसते हुए वनवास चला जाऊं
गर बरसे कोई आफत सब पर आसमानों से
बन के कृष्ण मैं अपने ऊपर गोवर्धन उठा जाऊं
ना आने दूं कोई भी ग़म मेरे अपनों की तरफ
हर ग़म को हँसते हुए गले लगाता चला जाऊं
गर दे दे खुदा मुझे किसी दिन अपनी जादूगरी
जो भी बिछुड़े हैं हमसे मैं उन्हें फिर लौटा लाऊँ
बाँध लूं मैं खुद को रिश्तों की ऐसी जंजीरों में
गर बुलाए खुदा भी तो मैं उसके पास ना जाऊं
सब को रख लूं एक बनाकर ज़हान को बना दूं मैं ज़न्नत
फिर एक दिन "नाशाद" जाकर खुदा को भी यहाँ ले आऊँ
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9 टिप्पणियां:
बहुत खूब, लाजबाब !
भाईसाहब; अगर सभी इंसान इसी तरह से सोचें तो हकीकत में ये दुनिया एक ज़न्नत बन सकती है.
मैं क्या लिखूं कुछ भी समझ में नहीं आ रहा. बस मेरी बधाई स्वीकारें .
नरेशजी ; मेरी आँखें नाम है . जुबां काँप रही है . दिल को इस तरह ये ग़ज़ल छु लेगी मैंने नहीं सोचा था .
क्या कोई इस तरह से भी सोच सकता है ? आपका परिवार ना जाने कितना खुशनसीब है जहां आप जैसा
भी है जो इस तरह के ख़याल सभी के लिए रखता है .आपके प्रेम गीत पढ़े लेकिन आपका ये नया रूप सब पर भारी है.
भावनाओं से भरी शुभकामना स्वीकारें.
मैं बहुत प्रभावित हूँ आपकी रचनाओं से. कभी कभी जीवन बदल जाता है जब कोई गहराई से ऐसी रचनाएँ पढता है तो .
आज कोई भी इंसान तक नहीं बनना चाहता और आपने क्या सोच लिया .
खुदा को इस जहां में लाने का आपका ज़ज्बा बहुत लाज़वाब है . आपने जो कुछ भी सोचा और लिखा है वो गज़लात की दुनिया में एक नया तजुर्बा है . ज़नाब नाशाद साहब आपकी इस ग़ज़ल को पढने के बाद काफी देर तक कोई कुछ नहीं पढ़ सकता. इसके एक एक शेर में जो ज़ज़बात उभरे है वो काबिल - ए - तारीफ है . मैं भी एक शायर हूँ और पिछले तीस सालों से पहलगाम की हसीं वादियों में गज़लें लिख रहा हूँ . लेकिन ऐसी मिजाज़ की ग़ज़ल एक लम्बे अरसे के बाद पढ़ी है . मेरा ये मानना है की आपकी ये ग़ज़ल उर्दू लिटरेचर में एक मील का पत्थर साबित होगी .कभी कभी शायर को खुद पता नहीं चलता की उसने क्या लिक्खा है नाशाद साहब हमारा सलाम कुबुलें और आनेवाले वक्त में हमें और ऐसी ग़ज़लों से नवाजें यही इल्तिजा है . खुदा से दुआ है को आप को लम्बी उम्र दें . आमीन . आपका अपना सिकंदर
सिकंदर साहब ; आदाब
आपने जो मेरी ग़ज़ल पढ़कर और तारीफ कर जो मेरी ज़र्रनावाज़ी की है . मैं तह-ए - दिल से आपका शुक्रिया अदा करता हूँ . मैं ये उम्मीद करता हूँ की आप आगे भी मेरी इसी तरह से हौसला अफजाही करते रहेंगे . आप खुशनसीब है कि आप कश्मीर के वासिंदे हैं . मैं तो अपनी ग़ज़ल में इस जहां को ज़न्नत बनाने कि बात कर रहा हूँ लेकिन आप तो पहले से ही इस जहां कि ज़न्नत यानि कि कश्मीर में रह रहे हो . मुझे बहुत ख़ुशी है कि आप जैसे बड़े शायर को मेरी ग़ज़ल पसंद आई . शुक्रिया . आपका मुन्तजिर -नाशाद
bahut bahut subhkamnye etni achhi soch h aapki....
taarif ke liye sabdho ki kami h
dil ko chune wali rachna h....
नरेशजी ; हकीकत में अब खुदा आये तो ही यह जहां कुछ रहने लायक बन सकता है . आपकी भाषा बहुत सशक्त है .एक ही ग़ज़ल में शिव राम और कृष्ण को लाना बड़ा ही अलग तरह का प्रयोग लगा.. जबकि होता यह है कि किसी एक को केंद्र में रखकर रचना लिखी जाती है लेकिन आपने तीनों को एक साथ लिया बहुत अच्छा लगा. इतने पवित्र ख़याल आपके चरित्र को दर्शाते है .
आपका स्वागत है हमारी बिरादरी में . बस ऐसा ही लिखते रहीये नाशाद जी . हमें आत्मिक खुशी होगी .
गर दे दे खुदा मुझे किसी दिन अपनी जादूगरी
जो भी बिछुड़े हैं हमसे मैं उन्हें फिर लौटा लाऊँ
इस शेर में जो ताकत दिखाई है आपने अपनों से बंधनों की वो बहुत ही जानदार है .
आज d उसरी बार इस ग़ज़ल को पढ़ा और इस शेर पर आकर रुक गया. इसे बार बार पढ़ा और दिल से महसूस किया.
एक बार और धन्यवाद और बधाई.
अब इस ग़ज़ल पर मैं कुछ नहीं ना लिख सकती. मैं ये समझती हूँ कि इसकी तारीफ में बहुत सोच समझकर शब्द ढूँढने होंगे. आप इन्ना चंगा कैसे सोच लेते हेंगे. मेरे दारजी को ये आपकी सबसे अच्छी ग़ज़ल लगी है. मैंने वैसे मेरे दारजी से ही ना लिखना सीखा है. आप सच में बहुत अच्छा लिखते हो. वाहे गुरु आपको ऐसा ही हमेशा हमेशा लिखवाये.
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