शुक्रवार, 30 अप्रैल 2010
मैं फिर से बनना चाहता हूँ
मुझे टूट कर बिखर जाने दो
मैं फिर से बनना चाहता हूँ
मैं फिर से बचपन में जाना चाहता हूँ
दादा की ऊंगली पकड़कर चलना चाहता हूँ
दादी की गोद में सिर रखकर सोना चाहता हूँ
पापा की डांट खाकर कुछ सीखना चाहता हूँ
माँ के आँचल में छुपकर सब गम भुला देना चाहता हूँ
मैं फिर से बनना चाहता हूँ
मैं फिर से बनना चाहता हूँ
मैं फिर से बचपन की गलीयों से गुजरना चाहता हूँ
दोस्तों के साथ खेलना झगड़ना चाहता हूँ
सावन की फुहारों में भीगना चाहता हूँ
पेड़ों पे बंधे झूलों में झुलना चाहता हूँ
छोटे भाईयों को अपना रौब दिखाना चाहता हूँ
लाला की दूकान से कुछ चुराकर भागना चाहता हूँ
मैं फिर से बनना चाहता हूँ
मैं फिर से बनना चाहता हूँ
रेत के टीलों पर चढ़ना चाहता हूँ
स्कूल से नजरें चुराना चाहता हूँ
मास्टरजी की डांट खाकर रोना चाहता हूँ
खेतों में बेमतलब दौड़ना चाहता हूँ
गाँव के मेलों में घूमना चाहता हूँ
जिंदगी के झमेलों से दूर भागना चाहता हूँ
मैं फिर से बनना चाहता हूँ
मैं फिर से बनना चाहता हूँ
जो भी अधूरे रह गए थे वे काम पूरे करना चाहता हूँ
जो भी रह गई मुझमे कमीयां उन्हें दूर करना चाहता हूँ
दादा-दादी माँ-पिताजी के सपने पूरे करना चाहता हूँ
अधुरा लग रहा है जीवन उसे पूरा करना चाहता हूँ
मैं फिर से बनना चाहता हूँ
मैं फिर से बनना चाहता हूँ
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24 टिप्पणियां:
कौन अपने बचपन में नहीं जाना चाहेगा .आपने सभी के मन की बात लिख दी है. इस बार थोड़े अंतराल के बाद आपकी रचना पढने को मिली लेकिन आपने विषय बहुत अलग चुना. मुझे बहुत पसंद आया.
दादा की ऊंगली पकड़कर चलना चाहता हूँ
दादी की गोद में सिर रखकर सोना चाहता हूँ
पापा की डांट खाकर कुछ सीखना चाहता हूँ
माँ के आँचल में छुपकर सब गम भुला देना चाहता हूँ
आंसू आ गए सभी का एक साथ जिक्र पढ़कर. आप सच में बहुत भावनात्मक विचारधारा वाले लगते हो. बड़ी अच्छी लगी कविता.
बहुत सुन्दर और दिल को भीतर तक छु लेने वाली रचना.
very good. Bachpan me loutna mumkin to nahi fir bhi aapne is wichaar ko man me laakar hamara bachapan yaad dila diya.
बचपन में लौटने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद नरेशजी. मैं कुछ दिन यहीं रहूंगी.
बचपन में लौटने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद नरेशजी. मैं कुछ दिन यहीं रहूंगी.
माँ के आँचल में छुपकर सब गम भुला देना चाहता हूँ
मैं फिर से बनना चाहता हूँ
मुझे अपनी माँ याद आ गई जो अब इस दुनिया में नहीं है. आपने वास्तव में बहुत अच्छा लिखा है.
क्या खूब विचार आया है आपके मन में. अतिसुन्दर रचना.
बहुत अच्छी है भइय्या. बचपन सपनो जैसा होता है लेकिन आज आपने हकीकत में जैसे सामने खड़ा कर दिया लाकर.
एक और बेहतरीन रचना. बहुत गहराई है शब्दों और विचारों में.
अत्यंत ही प्रशंसनीय. बधाई नरेशजी
भैय्या. नमस्ते. बहुत सुन्दर रचना है. काश यह संभव हो जाता तो !!!!
खेतों में बेमतलब दौड़ना चाहता हूँ
गाँव के मेलों में घूमना चाहता हूँ
जिंदगी के झमेलों से दूर भागना चाहता हूँ
कितना सुन्दर बन गया है ये सपना. इसे कोई हकीकत में बदल दे.
ये पंक्तियाँ हमें खींच ले जाती है उस सुहावने दिनों की ओर जो हमने अक्सर याद आते हैं. आपने बहुत खुबसूरत लिखा है. नरेशजी, आपकी लगभग हर रचना ने दिल को छुआ है.
दादा-दादी माँ-पिताजी के सपने पूरे करना चाहता हूँ
अधुरा लग रहा है जीवन उसे पूरा करना चाहता हूँ
Once again a touching creation with lovely feelings.
मैं फिर से बचपन की गलीयों से गुजरना चाहता हूँ
दोस्तों के साथ खेलना झगड़ना चाहता हूँ
सावन की फुहारों में भीगना चाहता हूँ
पेड़ों पे बंधे झूलों में झुलना चाहता हूँ
छोटे भाईयों को अपना रौब दिखाना चाहता हूँ
लाला की दूकान से कुछ चुराकर भागना चाहता हूँ
ऐसा ख़याल और उस पर आपके सीधे सीधे दिल को छुते हुए शब्द. कितनी सुन्दर बन पडी है शब्दों की ये माला.
ACHCHHEE RACHNA KE LIYE MEREE
BADHAAEE AUR SHUBH KAMNA.
आया है मुझे फिर याद वो ज़ालिम
गुज़रा ज़माना बचपन का......
कविता के भाव सचमुच बचपन की यादों में ले गये.
जो जीवन में सिर्फ़ एक बार मिलता है.....
नाशाद साहब,
आप और हम खुशनसीब रहे हैं कि
खेतों में बेमकसद भागने दौड़ने का मौका मिल गया.
वरना आज तो अपेक्षाओं के बस्ते का इतना बोझ है कि
उसके नीचे आज का बचपन कहीं खो ही गया है.
इस सुन्दर प्रस्तुति के लिये बधाई.
अधुरा लग रहा है जीवन उसे पूरा करना चाहता हूँ
मैं फिर से बनना चाहता हूँ
बहुत सुन्दर और हर दिल अजीज ख़याल है. मैं भी अपने बचपन में लौटना चाहती हूँ.
मेरी सहेली अनुपमा ने आपके ब्लॉग के बारे में बताया. मैंने आपकी कवितायें-गज़लें पढ़ी. आप बहुत अच्छे शायर हैं. आपकी लिखावट सधी हुई है. बहुत सुन्दर रचना.
नरेश बाबु , मैं जब भी अपने गाँव जाता हूँ तो बस यही सोचता हूँ. इस बार जाऊंगा तो अपने घर के बहार बैठ कर आपकी इस ग़ज़ल को बारबार पढूंगा. आपने दिल जीत लिया. अतिसुन्दर.
मैं फिर से बचपन में जाना चाहता हूँ
दादा की ऊंगली पकड़कर चलना चाहता हूँ
दादी की गोद में सिर रखकर सोना चाहता हूँ
पापा की डांट खाकर कुछ सीखना चाहता हूँ
माँ के आँचल में छुपकर सब गम भुला देना चाहता हूँ
मैं फिर से बनना चाहता हूँ
जो भी अधूरे रह गए थे वे काम पूरे करना चाहता हूँ
जो भी रह गई मुझमे कमीयां उन्हें दूर करना चाहता हूँ
दादा-दादी माँ-पिताजी के सपने पूरे करना चाहता हूँ
अधुरा लग रहा है जीवन उसे पूरा करना चाहता हूँ
really bahut hi aachi lines h, es rachna ko padh kar bachpan ki yadde taza ho gaye h,jo pic pahle lagi thi us se to jod ki galiya yaad aa gaye jaha bachpan ke sunhre pal gujare the....aap aise hi likhte rahe or hum yado m kho jayenge...kuch pal jo apne hote h..
आपकी कवितायेँ पढ़ी बहुत पसंद आई. सभी अच्छी लगी. आपको मेरी बधाई.
क्या खूब विचार आया है आपके मन में. अतिसुन्दर रचना.
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