हमसाया
तुम्हारी आँखों में अपना मुकद्दर देखा है मैंने
तेरे चेहरे में जैसे कोई अपना ही देखा है मैंने
मंजिल को अक्सर बहुर दूर देखा है मैंने
साथ तेरे चल कर उसे करीब पाया है मैंने
जब भी सामने आये हो तो अक्सर ये सोचा है मैंने
जागती आँखों से जैसे कोई ख्वाब सा देखा है मैंने
गम-ए-दौरां में खुद को तनहा पाया हो मैंने
साथ तेरा पाकर ज़माना साथ पाया है मैंने
अक्सर खुद से जुदा सा अपना साया पाया है मैंने
साथ जब से हुए हो तुम में ही हमसाया पाया है मैंने
रविवार, 4 अप्रैल 2010
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4 टिप्पणियां:
एक और सुन्दर ख़ूबसूरत ग़ज़ल . आप सरल और सीधी भाषा में बहुत गहरी बात कह जाते हैं और वो भी बड़ी ही सहजता से . जितना पढ़ने में यह लिखा हुआ आसान लगता है उतना आसान नहीं है लिखना . लेकिन फिर भी आपके लिए ये आसान ही लग रहा है मुझे . कितना अच्छा और खुशनुमा लगता होगा उसे जिसे कोई यह सब कहता होगा / होगी . वो अपने दिल में कितनी मुहब्बत महसूस करता होगा .ये सोच कर ही दिल रोमांचित हो जाता है . अब कल का इंतज़ार है कि कल फिर कोई नै कविता या ग़ज़ल पढने के लिए मिलेगी .ढेर सारी बधाई नरेशजी
अच्छा लिखा है . मंजिल को दूर पाना और हमसफ़र मिलते ही करीब हो जाना . यही जिंदगी का फलसफा है नाशाद जी. बधाई
भाईसाहब वैसे तो पूरी ग़ज़ल बहुत अच्छी है लेकिन मेरी पसंद का शेर यह है --
गम-ए-दौरां में खुद को तनहा पाया हो मैंने
साथ तेरा पाकर ज़माना साथ पाया है मैंने
साथ हो तो ऐसा. जीवनसाथी ज़माने के बराबर होता है.
तुम्हारी आँखों में अपना मुकद्दर देखा है मैंने
तेरे चेहरे में जैसे कोई अपना ही देखा है मैंने
पहले शेर से ही महफ़िल जम जाती है. क्या बात है ज़नाब !!!!!!!! बस कुछ और लिख्खा नहीं जाता. हर महफ़िल में कहने लायक ग़ज़ल है.
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