मैं जब केवल एक साल का था जब मेरे दादा-दादी मुझे अपने साथ ले गए यह कहकर कि उन दोनों का अकेले मन नहीं लगता है. मैं १९६५ से लेकर १९७२ तक उन दोनों के साथ बालोतरा से पचपदरा सिटी होकर पचपदरा साल्ट डेपो जानेवाली ब्रांच लाइन पर पचपदरा साल्ट डेपो पर स्टेशन मास्टर थे. १९७३ में मेरे दादा सेवानिवृत हो गए. इसके बाद मैं अपनी दादी और मम्मी के साथ १९७३ से १९७९ तक रहा. इसके बाद मैं फिर से जोधपुर आ गया अपनी दादी के साथ. १९७९ से १९८१ तक मैं अपनी दादी के साथ अकेला रहा. १९८१ में दादी का स्वर्गवास हो गया और मैं आगे की पढ़ाई जारी रखने के लिए अपनी बुवा के पास जोधपुर में ही रहने लगा. १९८१ से लेकर १९८४ तक मैं अपनी बुवा के साथ रहा.
इसके बाद मैं १९८४ में फिर से अपने पापा-मम्मी के साथ रहने आ गया. इस तरह मुझे तीन माँओं ने मिलकर पाला और मुझे हर तरह की शिक्षा मिली. ये मेरे लिए बड़े फक्र और किस्मत की बात है. इन सब घटनाओं को केंद्र बनाकर मैंने इस कविता की रचना की है. मुझे आज भी अपने बचपन से लेकर जोधपुर में बिताये हुए समय की लगभग हर घटना याद है. वहां के त्यौहार ; वहां की शादीयाँ और समय समय पर विभिन्न त्यौहारों पर निकलने वाले मेले, सब कुछ याद है. वहां के जिंदादिल और मिलनसार लोग और वहां का खुशनुमा और उल्लासमय माहौल मुझे अभी भी रह रहकर जैसे पुकारता है.
बस इसी का नाम तो जीवन है -
सिर्फ सांस लेना ही नाशाद जीवन नहीं है
हर एक सांस को जीना ही जीवन कहते हैं
अपना गलियारा
है याद मुझे वो गलियारा
वो आँगन वो चौबारा
वो घर वो गाँव
वो बा बाउजी का चेहरा
उस आँगन में बा तुम
मुझको खूब खिलाती थी
अच्छाई का सच्चाई का
मुझको पाठ सिखाती थी
सीधी सीधी बातों में तुम
मुझे सीख अच्छी दे जाती थी
हर इंसान में भगवान् है
मुझे तुम रोज़ समझाती थी
वहां सरल जीवन मैं जीता था
भोलेपन की मिटटी में दिल रहता था
गाँव की गलीयों में जीवन जी रहा था
बा - बाउजी की मुस्कानों में सारा जहाँ था
फ़िर वो दिन भी आया जब दूर जाना पड़ा
सब कुछ छोड़ सब कुछ भूल दूर जाना पड़ा
बाउजी को हमेशा हमेशा के लिए खोना पड़ा
गाँव गलियां चौबारा ना जाने क्यों छोड़ना पड़ा
कुछ लम्हे फ़िर भी बाकी बिताने को मिले
बा की जिंदगी से कुछ हिस्से मुझे और मिले
कितना खुशनसीब था मैं ; मुझे तीन माँओं ने पाला था
सब कुछ पाकर भी जैसे सब कुछ मैंने खो दिया है
ना जाने मुझे आज फ़िर क्यों मेरा गाँव याद आया है
ना जाने बा बाउजी ने उसे कहाँ छुपाया है
कोई मुझे आज ये बताये मैं क्यों जीवन हूँ हारा
क्यों छूटा है मेरा वो गाँव, गलियां वो चौबारा
अपने आँगन से प्यार करो ; अपने गलियारों में खेलो
खुशीयों के तीर चलाओ ; सुख की लहरों से खेलो
जो वक्त आज गुजर रहा है फ़िर ना आएगा दोबारा
तुम तरसोगे आँगन को ; खोजोगे अपना गलियारा
खोजोगे अपना गलियारा ..........
19 टिप्पणियां:
एक बार फिर आपने अपनी जिंदगी की किताब में हमें झाँकने का मौका दिया. नरेशजी, अब धीरे धीरे यह लगने लगा है कि आपकी बीती हुई जिंदगी में जो शिक्षा मिली , संस्कार मिले उसी की वजह से आप आज एक निखरे हुए इंसान और रचनाकार हो. आपकी कविता बहुत ही अच्छी लगी.
badi hi bhavuk rachna...bahut kuch man ke gullak me jama tha sab foot pada...
खुद की जिंदगी की कहानी को आपने कविता का रूप दिया और यह रूप बहुत ही पसंद आया. आपका तीन माँओं का जिक्र मन को भिगो गया. आपने बहुत ही कम उम्र में जिंदगी को बहुत करीब से देख लिया.
बहुत अच्छी कविता. आप ने हमारे शहर जोधपुर की जो तारीफ की है उससे मन प्रसन्न हो उठा. चित्र से तो यही लगता है की आप पुराने शहर में ही रहे होंगे.
आपकी कविता ने एक बार फिर यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि कभी कभी घटनाएं ऐसे घटती है कि हम सालों बाद ही उसक असर महसूस करते हैं या समझते हैं.
यादों का गलियारा
कोई मुझे आज ये बताये मैं क्यों जीवन हूँ हारा
क्यों छूटा है मेरा वो गाँव, गलियां वो चौबारा
अपने आँगन से प्यार करो ; अपने गलियारों में खेलो
खुशीयों के तीर चलाओ ; सुख की लहरों से खेलो जो वक्त आज गुजर रहा है फ़िर ना आएगा दोबारा तुम तरसोगे आँगन को ; खोजोगे अपना गलियारा
नाशाद जी! यादों के ये लम्हें कहने को नाशाद करते हैं लेकिन जो याद करते हैं वही जानते हैं कि कौन से पल उन्हें शाद करते है।
अच्छी भावपूर्ण रचना
आप कृष्ण से एक कदम आगे हैं
Aapki kavita padhi. Bahut sundar likhi hai aapne. Hamari bahut shubh kamana.
भाईजान, आपने तो अपना दिल ही खोलकर रख दिया. कितना याद करते हो आप अपने बचपन को. बहुत ही अच्छी कविता है.
कविता तो सुन्दर है ही लेकिन उसके साथ साथ आपने जो अपने बीते हुए जमाने के बारे में जो लिखा है वो उससे भी सुन्दर लगा. बहुत सारी बधाईयाँ. .
आपने अपना बचपन अपने राजस्थान के रेत के टीलों पर घुमते हुए बिताया है. चम् चम् चमके चाँदणी ज्यूँ चांदी रा खेत. भाईसा; आप बहुत ही सुन्दर लिखते हो.
जिंदगी के इस पड़ाव पर जब अपना गाँव; खेत या फिर रेत के टीले या पहाड़ याद आते हैं तो ऐसा लगता है की हम जहाँ कहीं भी है बस वक्त जाया का रहे हैं. एक नकली जिंदगी जी रहे हैं. आपने क्या खूब लिखा है - मैं क्यूँ जीवन हर हूँ? नाशाद साहब ये कमबख्त ज़माना ही ऐसा हो गया है कि हम जैसे लोगों को अपनी हार ही हार दिखाई देती है.
अच्छी भावपूर्ण रचना
बहुत सारी बधाई
बहुत ही भावनाओं से ओतप्रोत कविता. दिल से लिखी गई रचना. बहुत सुन्दर.
अपने आँगन से प्यार करो ;
अपने गलियारों में खेलो
खुशीयों के तीर चलाओ ;
सुख की लहरों से खेलो
जो वक्त आज गुजर रहा है
फ़िर ना आएगा दोबारा
तुम तरसोगे आँगन को ;
खोजोगे अपना गलियारा
खोजोगे अपना गलियारा ..........
आपके बीते हुए पलों को लेकर आपने जो कविता लिखी है , वो है ना बहुत ही अच्छी बन पड़ी है. एक एक पंक्ति में कोई ना कोई याद दिख रही है.
दारजी ने इस कविता को खुद भी पढ़ा और बहुत खुश हुए हैं. आपके लिए वाहे गुरु से अरदास की है कि आप और भी अच्छा लिखो. आप हमेशा खुश रहो. नरेश प्राजी; बहुत अच्छा लगा.
umda...
YE GALIYAN YE CHOBARA NA BHULANA YAHAN ANA HEN TUMEHEN BAR BAR DUBARA YE MITHI OR CHRKHI KHUSHBU NA BHULE KOI OR NA CHUTE YE CHOBARA 'BHAI WAH'
अपने आँगन से प्यार करो ;
अपने गलियारों में खेलो
खुशीयों के तीर चलाओ ;
सुख की लहरों से खेलो
जो वक्त आज गुजर रहा है
फ़िर ना आएगा दोबारा
तुम तरसोगे आँगन को ;
खोजोगे अपना गलियारा
खोजोगे अपना गलियारा ..........
bachpan ki yadde taza ho gaye bahut khub......
चित्रों के साथ आलेख का कोम्बिनेशन ज़बरदस्त है
बधाई .
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