जुदा कर सकता नहीं
जिस्म को जान से जुदा कर सकता नहीं
तेरी याद को खुद से जुदा कर सकता नहीं
मंजिल को राहों से जुदा कर सकता नहीं
तेरी गलीयों से राह अपनी बदल सकता नहीं
साये को खुद से जुदा कर सकता नहीं
तेरी तस्वीर को आँखों से हटा सकता नहीं
दिल को दर्द से जुदा कर सकता नहीं
तेरे लिखे खतों को मैं जला सकता नहीं
सावन को घटाओं से जुदा कर सकता नहीं
तेरे नाम को अपने से जुदा कर सकता नहीं
खुद को भुला सकता हूँ मगर तुम्हे भुला सकता नहीं
अपने इश्क का कोई और वास्ता मैं दे सकता नहीं
रविवार, 6 जून 2010
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21 टिप्पणियां:
bahut khoob likha
janab
http://sanjaykuamr.blogspot.com/
हमेशा की तरह ये पोस्ट भी बेह्तरीन है
कुछ लाइने दिल के बडे करीब से गुज़र गई....
हर किसी को आप बीती लगे ऐसी रचना लिखी है आपने. एक बार फिर ढेर सारी शुभ-कामनाएं और बधाईयाँ.
वाह नरेशजी. क्या खूब लिखा है - तेरी याद को खुद से जुदा कर सकता नहीं. बहुत सुन्दर .
बहुत अच्छी लगी.
साये को खुद से जुदा कर सकता नहीं
तेरी तस्वीर को आँखों से हटा सकता नहीं
भाईजान; कमाल की ग़ज़ल है. हर शेर लाजवाब और दोहराने लायक.
बेहतरीन. साथ की तस्वीरों ने इस ग़ज़ल को एक कहानी में बदल दिया. अच्छा प्रयोग.
हुज़ूर, क्या बात है. एक दफा पढ़ते ही मेरी जुबां पर चढ़ गई आपकी ग़ज़ल. वाह वाह और एक वाह.
हर दिल अजीज ग़ज़ल. बस पढ़ते जाएँ.
आपकी ग़ज़लों और कविताओं को पढ़कर अक्सर ऐसा अहसास होता है जैसे इसे कई बार सुना है या पढ़ा है. आपकी भाषा बहुत खिंचाव वाली होती है इसलिए. बहुत सुन्दर.
बहुत सुन्दर |
बड़ा ही सुन्दर वर्णन हुआ है यादों का और हिज्र की तन्हाइयों का. धन्यवाद नरेशजी.
ओं हो सर. बड़ी शानदार ग़ज़ल लिखी है आपने. पढ़कर सुकून मिला.
क्या खूब लिखा है
दिल को दर्द से जुदा कर सकता नहीं
तेरे लिखे खतों को मैं जला सकता नहीं
हर किसी की तन्हाइयों में अक्सर ऐसी बाते याद आती है. दिल कहीं दूर खो सा जाता है. आपने इस दर्द को बड़ी ही कुशलता के साथ शब्दों में गूंथ कर ग़ज़ल में पिरो दिया है. बहुत बहुत शुक्रिया नाशादजी.
शानदार ग़ज़ल लिखी है आपने.
padhne dobara chala aayaa.
उत्साह बढाने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद संजयजी. आपको ग़ज़ल बहुत पसंद आई यह जानकार और भी ख़ुशी हुई..
शीतल ने बिलकुल सही लिखा है. मुझे भी हर बार ऐसा ही लगता है. दरअसल विषय इतना जाना पहचाना होता है कि ऐसा लगता है जैसे हम मे से किसी के साथ ये हो चुका है. बहुत बहुत बधाई नरेशजी. ग़ज़ल बहुत ही सुन्दर है. अगर गुलाम अली साहब इस ग़ज़ल को गायें तो कैसा लगेगा! मेरे ख़याल से तो लाजवाब ग़ज़ल बन जायेगी..
बहुत बहुत शुक्रिया इस ग़ज़ल के लिए. आज कुछ मुड ऐसा ही था और उस पर आपकी यह ग़ज़ल पढने के लिए मिल गई.
सावन को घटाओं से जुदा कर सकता नहीं
तेरे नाम को अपने से जुदा कर सकता नहीं
रोचक
Bhai Nashad Ji,
Sanjo kar mat bathiye yaadon ko, kahin dard na mile!
Par aap to "Nashad" mein hi Shad hain.....
Achhi rachna.....
Banjaara Baadal!
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