गुरुवार, 30 सितंबर 2010

     बच्चा ही रहे आदमी

एक दूसरे को देखकर आज सहमा हुआ है आदमी
ना जाने कौन दुश्मन हो कोई अपना ही आदमी 

एक कहता है मंदिर बने तो दूजा कहे कि मस्जिद
पर इन्हें ना अपने साथ ले जा पायेगा कोई आदमी 

मजहब नहीं कहता आदमी का दुश्मन हो आदमी 
हर मजहब यही सिखाता है बस जिन्दा रहे आदमी 

सारी धरती एक सी है सारा आसमान भी है एक
फिर उन्हें क्यूँ बांटता जब खुद खुदा नहीं है आदमी 

बच्चे को पता नहीं क्या धर्म; क्या हिंद, क्या पाकिस्तान 
नाशाद कहे खुदा से बस बच्चा ही रहे ता-उम्र आदमी 

6 टिप्‍पणियां:

Unknown ने कहा…

नरेशजी, आपसे झगड़ा करने की इच्छा थी लेकिन आपकी ग़ज़ल ने कहीं और पहुंचा दिया. बेहद अच्छी ग़ज़ल लिखी है आपने. लेकिन फिर भी - ये कोई बात नहीं हुई आप आजकल बहुत कम लिख रहे हो. हमें बहुत कमी महसूस होती है. आप एक वादा करो कि आज के बाद हर सप्ताह कम से कम एक रचना जरुर पोस्ट करोगे. नहीं तो हम सभी नाराज हो जायेंगे.

Unknown ने कहा…

कहाँ रह गए जनाब नाशाद साहब, ईद का चाँद भी निकल आता अगर हमने आसमान की तरफ कुछ ऐसी प्यासी और तरसती निगाहों से देखा होता तो. बहुत ही सीधी बात को आपने उतनी ही सीधी ग़ज़ल में ढाला है, शुक्रिया. बस हर भारतवासी इसे समझ जाए . यही दुआ है.

nilesh mathur ने कहा…

वाह! क्या बात है!सांप्रदायिक सौहार्द बना रहे!

Unknown ने कहा…

आपके विचार एकदम शुद्ध और मानवता वादी लगे नरेशजी. काश हर कोई इसी तरह से सोचता. खाई कितनी चोडी कर दी है कुछ मुट्ठी भर लोगों ने.

Unknown ने कहा…

हमारे पडोसी एक मुसिलम परिवार हैं. हम लोग पिछाले बीस सालों से सभी त्यौहार आपस में एक साथ मना रहे हैं. क्या ये लोग इस बात को समझ सकते हैं जो सिर्फ नफ़रत की भाषा बोलते हैं. नरेशजी, आपको बहुत बधाई इस ग़ज़ल के लिए.

Manish aka Manu Majaal ने कहा…

फाजली साहब ने कहा है :

जिंदगी का मुक्कदर सफ़र दर सफ़र,
आखरी सांस तक बेकरार आदमी,

कम्बखत आदमी की कुछ फितरत ही ऐसी है, बाज़ नहीं आता ....

लिखते रहिये ....