मेरी तरह अकेला
मेरी तरह वहाँ कोई अकेला ना था
धूप में मेरा कहीं साया तक नहीं था
सुनसान थी राहें उसके घर की मगर
उसकी यादों का कारवां मेरे संग था
हर तरफ थी खामोशीयाँ और थी तन्हाईयाँ
याद आती उसकी बातों से सफ़र आसां था
वक्त की धूल ने मिटा दिए थे सभी रास्ते
उसके बदन की खुशबू उसके दर का रास्ता था
बुझी हुई थी शम्मां महफ़िल में भी कोई ना था
फ़कत एक था नाशाद और एक खाली सफहा था
गुरुवार, 9 दिसंबर 2010
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9 टिप्पणियां:
वक्त की धूल ने मिटा---- वाह बहुत खूब शेर कहा। बधाई इस रचना के लिये।
हर तरफ थी खामोशीयाँ और थी तन्हाईयाँ
याद आती उसकी बातों से सफ़र आसां था
बहुत ही सुंदर .... एक एक पंक्तियों ने मन को छू लिया ...
कुछ लाइने दिल के बडे करीब से गुज़र गई....
निर्मला जी , संजय जी.. आपकी टिप्पणीयों के लिए बहुत बहुत आभार. बहुत ख़ुशी हुई की आपको मेरी नै ग़ज़ल आपको पसंद आई.
हम तो आपसे नाराज हो गए हैं नरेश जी.. इतना कम लिख रहे हो आप. अब एक वादा कीजिये कि आप पहले की तरह ही लिखोगे.
कितनी सुन्दर ग़ज़ल है..
वक्त की धूल ने मिटा दिए थे सभी रास्ते
उसके बदन की खुशबू उसके दर का रास्ता था
बड़ी देर से आये हैं आप
कितनी हसीं ग़ज़ल लाये हैं आप
नाशाद साहब.. कहा हो आजकल!!!!!
ये बेरुखी बरदाश्त नहीं है भाईजान.
बस अब लगातार लिखिएगा. सभी यही कह रहे हैं.
बुझी हुई थी शम्मां महफ़िल में भी कोई ना था
फ़कत एक था नाशाद और एक खाली सफहा था
==वाह नाशाद साहब. बड़ा ही उम्दा शेर. इस तरह गायब ना रहें हुज़ूर. यही ख्वाहिश है हमारी.
बेहद ही खुबसूरत ग़ज़ल. एक एक शेर बार बार पढने के काबिल है. बड़े दिनों बाद आप लौटे हो, लेकिन इस ग़ज़ल ने तमाम शिकायतें दूर कर दी है.
मैं जानता हूँ आप सभी नाराज़ हैं. एक लम्बे अरसे से मैं उस तरह से नहीं लिख पा रहा था की आपको पढ़ाऊं. मैं लिख रहा था लेकिन ऐसा लग रहा था की इसे ब्लॉग पर पोस्ट करूँ या ना करूँ. इसी उलझन में काफी वक्त गुज़र गया. लेकिन अब मैं लगातार आपके लिए महफ़िल-ए-नाशाद में लिखता रहूंगा. मुआफी चाहता हूँ आप को नाराज़गी पहुंची. बहुत बहुत शुक्रिया आप सभी का.
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