मन नदी सा बहता रहा
मन नदी सा कल कल बहता रहा
चाहतों की ढलान को राह समझता रहा
यह सोचकर कि कभी तो
सागर रूपि मंजिल मिलेगी
वो अपनी धुन में अपनी राह बहता रहा
जहाँ जहाँ से गुज़रा
सभी को शीतलता से भिगोता रहा
मन नदी सा कल कल बहता रहा
चाहे बरखा बरसती रही
चाहे धूप आग बरसाता रहा
मन सब सहन करता हुआ
सागर को ख़्वाबों में बसाया हुआ
अपनी धुन में अपनी राह बहता रहा
मन नदी सा कल कल बहता रहा
ना जाने कितनी नैय्या
उसमे बहकर मुसाफिरों संग
अपने अपने किनारे पाती रही
मगर मन नदी सा सागर की चाह में
अपनी धुन में अपनी राह बहता रहा
मन नदी सा कल कल बहता रहा
दिन बीते साल बीते बीत गई सदीयाँ
ना रुका ना थका ना बोझिल हुआ
वो तो अनवरत बहता रहा
सागर के सपने संजोता रहा
अपनी धुन में अपनी राह बहता रहा
मन नदी सा कल कल बहता रहा
= नरेश नाशाद
4 टिप्पणियां:
बहते मन के साथ बह कर गूढ़ रहस्य जानने का प्रयास सराहनीय | बस इसी तरह बहते रहना सदा | ठहराव में सन्नाटे की चीखें व्याकुल कर देती है |
बहुत सुंदर
खूबसूरत .... यूं ही बहने दीजिये मन को
धन्यवाद सुनील भाई साहब.....आपकी प्रतिक्रियाएं मुझे हमेशा कुछ ना कुछ नया सिखाती है.....
धन्यवाद संगीता स्वरुप जी...मन इसी तरह से बहता हुआ अच्छा लगता है....
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