मंजिल मिल गई हो जैसे
वो मुझे देख रहे हैं कुछ ऐसे
उन्हें मंजिल मिल गई हो जैसे
उनकी तस्वीर लग रही है कुछ ऐसे
बस मुझसे अभी बोल पड़ेगी वो जैसे
उसने मेरा हाथ थाम लिया कुछ ऐसे
जनम जनम का हमारा साथ हो जैसे
बरसों बाद उसे देख लगा कुछ ऐसे
पहली बार ही हम मिल रहे हों जैसे
दिल में है बहुत बातें पर वो खामोश है कुछ ऐसे
ज़जीरों ने उनकी जुबां को जकड लिया हो जैसे
उनकी गलीयों की तरफ कदम बढे कुछ ऐसे
हम अपने ही घर की तरफ जा रहे हों जैसे
"नाशाद" ना आये महफिलों में तो लगे कुछ ऐसे
शाम-ए-ग़ज़ल है पर शम्मा ही ना जली हो जैसे
सोमवार, 12 अप्रैल 2010
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4 टिप्पणियां:
नाशाद जी की एक और जबरदस्त ग़ज़ल जो एक प्रेम गीत भी लग रहा है. आपके घर में तो फिर महफिले सजती होंगी आपकी गज़लें सुनने के लिए. कितना अच्छा लगता होगा जब सभी एक साथ बैठ कर आपकी इन ग़ज़लों और कविताओं को सुनते होंगे. बड़ा मज़ा आता होगा ना.
मेरे पास शब्द नहीं हैं!!!!
aapki tareef ke liye
वो मुझे देख रहे हैं ऐसे . उन्हें मंजिल मिल गई ही जैसे. ये तो एक ऐसी बारीक नज़र वाला माशूक ही कह सकता है जो ये देखते ही समझ जाय कि मौहब्बत का असर हो चुका है और पाक साफ़ रिश्ते जनम जनम के लिए जुड़ चुके है. बहुत उम्दा फरमाया हुज़ूर
जनम जनम के साथी मिल गए हो जैसे. यह ग़ज़ल पढ़ कर मुझे लगा कुछ ऐसे.
देखिये नरेशजी ! आपकी गज़लें कवितायें पढ़ पढ़कर मैं भी शायद कुछ लिखना सीख गई हूँ.
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