शनिवार, 17 अप्रैल 2010

दूरीयाँ ना कम हो सकी 

चाहा तुमको हमने बहुत मगर
ये चाहत पूरी ना हो सकी
ख्वाब तेरे देखे हमने मगर
उनकी ताबीर ना मिल सकी

खुद को मिटा डाला मगर
दूरीयाँ ना कम हो सकी
आंसू सूख गए मगर
सिसकियाँ ना कम हो सकी

ख्वाब टूट गए मगर
उम्मीदें ना कम हो सकी
तुम से ना मिल सके मगर
मौहब्बत ना कम हो सकी




तुम ना समझ सके हमें
गलतफहमीयाँ ना दूर हो सकी
दिल में तो था बहुत कुछ मगर
जुबां ही बस कुछ कह ना सकी

तुम को मनाया बहुत मगर
कोशिशें ना सफल हो सकी
तुम को चाहा पाना हमने मगर
ये आरज़ू ना पूरी हो सकी


तुम्हें मान लिया खुदा हमने
पर बंदगी क़ुबूल ना हो सकी
सदायें तो दीं तुम को बहुत
पर तुम तक कभी ना पहुँच सकी

नाशाद रहे इस उम्मीद में
वो लौट आयेंगे एक दिन
उम्र गुज़र गई मगर
हिज्र की घडीयाँ ना ख़त्म हो सकी

9 टिप्‍पणियां:

Shekhar Kumawat ने कहा…

bahut khub


shakher kumawta


kavyawani.blogspot.com/

Unknown ने कहा…

खुद को मिटा डाला मगर दूरीयाँ ना कम हो सकी
आंसू सूख गए मगर सिसकीयाँ ना कम हो सकी

आपका आज तक का सबसे अच्छा शेर. बहुत जबरदस्त भाई साहब आज तो दिल खुश हो gaya.

Pran Sharma ने कहा…

Achchhee kavita ke liye meree
badhaaee aur shubh kaamna.

रविंद्र "रवी" ने कहा…

"खुद को मिटा डाला मगर
दूरीयाँ ना कम हो सकी"
खुबसुरत, बहुत ही खुबसुरत!!!

Unknown ने कहा…

खुद को मिटा डाला मगर दूरियां ना कम हो सकी
आंसू सूख गए मगर सिसकीयाँ ना कम हो सकी

क्या दर्द उभर कर आया है इस शेर में. सारी हदें ख़त्म हो जाती है यह सोचने के बाद. आपने आज रुला दिया. मैं सच कह रही हूँ मेरी आँखें है ना भीग गई है इसे पढ़ते पढ़ते नरेशजी.

Unknown ने कहा…

नाशाद साहब ,
दर्द की हदें मिट गई
पर मेरा दर्द ना कम हो सका
आंसू ख़त्म हो गए
बारिशों को कोई रोक ना सका
बहुत ही खूब लिखा है. जिसके दामन में दर्द ही दर्द भरा हो . ऐसा दामन लगता है . दीवानगी की हद तक ये ग़ज़ल पसंद आई मुझे.

Unknown ने कहा…

खुद को मिटा डाला मगर
दूरीयाँ ना कम हो सकी
आंसू सूख गए मगर
सिसकीयाँ ना कम हो सकी

बहुत भावपूर्ण है. दिल में बहुत ख़याल आने लग जाते हैं. किसी को आखिर कर ऐसा क्यूँ कहना पड़ता है. कोई क्यूँ जुदा होता है . दो दिल क्यूँ नहीं मिल पाते जब भी वो सच्चे प्यार में होते हैं. मौहब्बत में नरेशजी अक्सर जुदाई ही क्यूँ लिखी होती है? क्या आप के पास इसका जवाब है? आपने इस बारे में इतना लिखा है आपने भी कुछ सोचा होगा कभी कि ऐसा क्यूँ होता है ? गलतफहमीयाँ क्यूँ पैदा हो जाती है? जनम जनम का साथ निभाने की कसमे खानेवाले क्यूँ मजबूर हो जाते हैं?

V Singh ने कहा…

भाईसाहब ; आपके इस शेर ने तो आज भीतर तक रुला दिया. दिल में उतर गया. बहुत गहरी भावना है. ऐसा समर्पण कहाँ मिलेगा.

खुद को मिटा डाला मगर
दूरीयाँ ना कम हो सकी
आंसू सूख गए मगर
सिसकियाँ ना कम हो सकी

Unknown ने कहा…

तुम ना समझ सके हमें
गलतफहमीयाँ ना दूर हो सकी
दिल में तो था बहुत कुछ मगर
जुबां ही बस कुछ कह ना सकी
इस शेर ने मुझे अपना गुजरा हुआ समय याद दिला दिया. मैं इस स्थिति से बहुत करीब से गुजरी हूँ. कुछ पलों के लिए ही सही मैं खो गई. कितनी भावनापूर्ण ग़ज़ल लिखी है आपने ! दिल कहीं और चला गया इसे पढ़कर