रविवार, 10 मार्च 2013

ना हो जुदा

मेरे हमसफ़र मेरे हमकदम
ना हो तू अब मुझसे जुदा
मेरे हमराज़ मेरे हमनशीं
तू ही है अब मेरा खुदा

मेरे हमराज़ मेरे हमराह
मुझको बस तेरी ही चाह
मेरे हबीब रह मेरे करीब
ना हो तू अब मुझसे जुदा

मेरे महजबीं मेरे राजदार
मेरे दिल को है तुझसे करार
मेरे माहताब तुझे मेरी कसम
ना हो तू अब मुझसे जुदा

मेरे राज-ऐ-दिल मेरी जुस्तजू
तू ही मेरी आखिरी आरजू
मेरे आफताब तुझे खुदा कसम
ना हो तू अब मुझसे जुदा
= नरेश नाशाद

शनिवार, 13 अक्टूबर 2012

अब तो हर मंज़र किसी साज़िश की ही खबर देता है 
फूलों के गुलिस्ताँ में अब बारूद अपनी महक देता है 

कभी रौशनी के  लिए जलती थी मशालें हर घर घर में 
इंसान अब तो मशाल से किसी का भी घर जला देता है 

लोग थे फ़रिश्ते जन्मों के थे नाते खुशियों के थे मेले 
अब दिखावे से मिल गले इन्सां इक रस्म निभा देता हैं 

घूमते हैं सरेआम कातिल लिए खंज़र हाथ में हरसू 
नहीं किया जिसने जुर्म वो सहमा सा दिखाई देता है 

नहीं फ़िक्र नेता संत मौल्ला को मरा जा रहा आदमी 
जिसे भी देखो वो कुर्सी के लिए अंधा दिखाई देता है 

= नरेश नाशाद 

मंगलवार, 24 जुलाई 2012


यादों के दरख़्त  अब  कितने बड़े हो गए 
हकीकतों के साये भी उनसे छोटे हो गए 

निगाहों में थे जो  हमारे  तमाम  जिंदगी 
एक एक कर वो आसमां के सितारे हो गए 

किस किस की याद में आंसू बहायें ऐ खुदा 
दरिया की तरह बह अश्क भी सहरा हो गए

जो थे शामिल अभी तक मेरे कारवां में नाशाद 
एक एक कर सभी मेरी यादों का हिस्सा हो गए 

= नरेश नाशाद 


सोमवार, 23 जुलाई 2012


वो कसमें वो वादे  और वो ईरादे क्या हुए 
वो बुजुर्गों की सीख  वो संस्कार क्या हुए 

वो माँ की गोद वो पिता का दुलार क्या हुए
वो हर सांस साथ लेने के ख्वाब क्या हुए 

वक्त के साथ सब कुछ बदलता है ये माना हमने 
वो एक दूजे के लिए हमारे ख्वाब नाशाद क्या हुए  

तिनके तिनके बिखरते जा रहे हैं अब परिवार 
वो लोगों में हमारे किस्से हमारे करार क्या हुए  

वो इक छत में रहे एक पूरा परिवार क्या हुए
वो रिश्ते-नाते, वो सुख-दुःख के साथ क्या हुए 

जिन्हें लेकर चले थे हम जिंदगी के सफ़र में साथ 
इक इक कर के नाशाद अब हमसे सब जुदा हुए
= नरेश नाशाद   



रविवार, 22 जुलाई 2012


बातें तेरी जब से हम हर दिन याद करने लगे हैं 
भीड़ में सबसे अलग अब हम नज़र आने लगे हैं 

तुम्हारे पुराने ख़त जब से हम फिर पढने लगे हैं 
जिंदगी को  इक नये  मायने में हम पाने लगे हैं

तेरी तस्वीरों को छुप छुपकर जबसे देखने लगे हैं 
हर तरफ लोगों को  अब  मुस्कुराता पाने लगे हैं 

तेरी महफ़िलों के किस्से  जब से  हम सुनाने लगे हैं 
नाशाद लोग हमारी गजलों को भी गुनगुनाने लगे हैं  

= नरेश नाशाद 


सोमवार, 16 जुलाई 2012





















मन नदी सा बहता रहा 

मन नदी सा कल कल बहता रहा 
चाहतों की ढलान को राह समझता रहा 

यह सोचकर कि कभी तो 
सागर रूपि मंजिल मिलेगी 
वो अपनी धुन में अपनी राह बहता रहा 
जहाँ जहाँ से गुज़रा 
सभी को शीतलता से भिगोता रहा 
मन नदी सा कल कल बहता रहा 

चाहे बरखा बरसती रही 
चाहे धूप आग बरसाता रहा 
मन सब सहन करता हुआ 
सागर को ख़्वाबों में बसाया हुआ 
अपनी धुन में अपनी राह बहता रहा 
मन नदी सा कल कल बहता रहा 

ना जाने कितनी नैय्या 
उसमे बहकर मुसाफिरों संग 
अपने अपने किनारे पाती रही 
मगर मन नदी सा सागर की चाह में 
अपनी धुन में अपनी राह बहता रहा 
मन नदी सा कल कल बहता रहा 

दिन बीते साल बीते बीत गई सदीयाँ 
ना रुका ना थका ना बोझिल हुआ 
वो तो अनवरत बहता रहा 
सागर के सपने संजोता रहा 
अपनी धुन में अपनी राह बहता रहा 
मन नदी सा कल कल बहता रहा 
= नरेश नाशाद 

सोमवार, 25 जून 2012

       वो कोई और था 

वो कोई और था  जिसे तुमने देखा था
जो हर बात में मुस्कुराता
हर वक्त चहकता रहता था
हर ख्वाब को सच करने का हौसला रखता था

वो कोई और था जिसे तुमने देखा था
हर राह पर वो मंजिल पा लेता
हर सवाल का जवाब दे देता
हर मुसीबत का हल अपने दिमाग में रखता था

वो कोई और था जिसे तुमने देखा था
जो एक उदहारण था
जो एक निशाँ था जीत का
हर जीत के बाद एक नयी जंग की राह ताकता था

वो कोई और था जिसे तुमने देखा था
आज वो खुद जूझ रहा है
अपने वजूद को बचाने में
अपने लिए कोई मंजिल तलाशने में
वो शायद वो ही है जिसे तुमने देखा था

मगर आज वो वो नहीं रहा
वो बहुत बदल गया है
इक इमारत हुआ करता था वो
अब एक खंडहर बन गया है
एक खंडहर बन गया है
= नरेश नाशाद





शनिवार, 23 जून 2012

दिल  की बात को जुबां  पे लाना इतना आसां नहीं
अपनों को अपनी बात समझाना इतना आसां नहीं

अपने ही ख़्वाबों का सौदा करना इतना आसां नहीं
जहाँ के लिए खुद को भूल जाना इतना आसां नहीं

जिंदगी के सफ़र में मंजिल पाना  इतना आसां नहीं
सफ़र में किसी का साथ पाना भी इतना आसां नहीं

खुद पर ही हर इलज़ाम लगाना  इतना आसां नहीं
हर ज़ुल्म की खुद को  सजा देना इतना आसां नहीं 

जैसा दिखता है जहाँ   ये जहाँ भी इतना आसां नहीं
इस जहाँ से खुद को ही बचा पाना इतना आसां नहीं 



== नरेश नाशाद


सोमवार, 28 मई 2012

मैं ढूंढता हूँ खुद को  मगर मुझे  मैं खुद  ही नहीं मिलता
ये कैसा जहाँ है नाशाद जहाँ कोई खुद से ही नहीं मिलता

जिंदगी तो जी रहा हूँ   मगर मैं  जिंदगी से  नहीं मिलता 
सांसे चलती है मेरी मगर इनका कोई सबब नहीं मिलता

है रास्ते मेरे सामने मगर  मंजिल का पता नहीं मिलता
जो बढे हैं आगे उनके क़दमों का कोई निशाँ नहीं मिलता


किस किस को अब पुकारूँ नाशाद कोई हमखयाल नहीं मिलता
मिल जाता खुदा में ही मगर आजकल तो खुदा भी नहीं मिलता 


 

बुधवार, 23 मई 2012


मन अब इक जंगल सा हो गया



मन अब इक जंगल सा हो गया 

सिर्फ  यादों का  बसेरा रह गया 

नहीं रही अब तेरी आवाजें 

तेरा अहसास ही रह गया 

मन अब इक जंगल सा हो गया 



बीते हुए वक्त से बादल 

तेरी यादों की तरह बरसता सावन 

तेरी बातों सी शीतल पवन 

तेरा एहसास ही रह गया 

मन अब इक जंगल सा हो गया 



तेरी आहटों सी पगडंडीयाँ
तेरी मुस्कराहट से खिलते फूल 

तेरे आँचल सी खिलती बहारें 

तेरा एहसास ही रह गया 

मन अब इक जंगल सा हो गया 



तेरे खतों से बिखरे हुए सूखे पत्ते 

तेरी हंसी की तरह बहती कोई नदी 

मेरे मन की तरह ढलती हुई शाम 

तेरा एहसास ही रह गया 

मन अब इक जंगल सा हो गया 


मन अब इक जंगल सा हो गया 



= नरेश नाशाद 



गुरुवार, 12 अप्रैल 2012

किस्मत ने हमें उलझनें दी अब उनका हल ढूंढते हैं
चलते रहे सहराओं में  अब  हर जगह जल ढूंढते हैं

काट डाले सभी पेड़ पौधे और घर बसा लिए इंसानों ने
अब भूख मिटाने के लिए बंज़र ज़मीं में फसल ढूंढते हैं

दिया था खुदा ने इक छोटा सा प्यारा सा घर गाँवों में
आकर हैवानों की बस्ती में अब रहने को महल ढूंढते है

थी हवाओं में अपनेपन की खुशबू दिलकश था नजारा
अब पत्थरों के इस शहर में इन्सां की चहल पहल ढूंढते हैं

छोड़ आए सभी अपनों को दूर अपने गाँव में हम कहीं
आकर शहर में नाशाद अब तो हम खुद को ही ढूंढते हैं  


बुधवार, 25 जनवरी 2012

किसी की याद आती रही


मेरी तनहाईयाँ मुझे सताती रही
गुमसुम हवाएं लोरीयाँ सी सुनाती रही
सन्नाटों को चीरती
किसी की याद आती रही

मेरी कलम सफ़ेद कागजों पर
लिख लिखकर कुछ याद दिलाती रही
सूखे हुए लबों पर जैसे
कोई बात आती रही जाती रही
किसी की याद आती रही

बीते हुए पल कभी ना लौटेंगे
ना ही लौटेंगे दूर जानेवाले
दोपहर में तेज हवाएं गली में
जैसे धूल सी उडाती रही
किसी की याद आती रही

सूखे पत्तों की सरसराहट मुझे
किसी की आहट याद दिलाती रही
मेरी ऊँगलियाँ रेत पर जैसे
मेरी किस्मत लिखती रही मिटाती रही
किसी  की याद आती रही



सोमवार, 19 दिसंबर 2011


             बर्फ सी मौहब्बत 

शायद किसी बर्फ की सी थी तुम्हारी मौहब्बत
जो कुछ ही दिनों में पिघलकर कहीं दूर बह गई 

कुछ यादें ही थी तुम्हारी मेरी किस्मत में शायद
वो भी वक्त की आंधी में रेत सी कहीं दूर उड़ गई

तन्हाईयों में ही साथ था तुम्हारा; मेरे ख्यालों में 
सन्नाटों के आते ही तन्हाई भी कहीं गुम हो गई 

डायरी के पन्नों में थी सिमटी तेरी कुछ मुलाकातें
उन पन्नों के पलटते ही वो भी कहीं पीछे छूट गई 

नाशाद इक खुशबू की तरह थी तुम्हारी याद शायद
हवा के चलते ही उड़कर वो भी कहीं और चली गई 



शुक्रवार, 2 दिसंबर 2011

             लम्हे 

वो लम्हे जब वक्त भी ठहर गया था 
नाशाद अलविदा जब तुमने कहा था
इस जुदाई से चाँद भी हिल गया था 
बादलों के बीच वो भी छुप गया था 
खामोशी ही कर रही थी बातें मुझ से 
तुमने तो कह अलविदा सब कह दिया था


उस मोड़ पर तुम राह बदल चले गए थे 

सफ़र में मुझे तनहा छोड़ गए थे 
मैं ये सोच रहा था ये राह कहाँ तक है
मंजिल का सफ़र अब क़यामत तक है
वो लम्हे बर्फ की तरह जम गए थे 
आँखों के आंसू भी जैसे वहीँ थम गए थे 
    

मुझे अब भी याद है वो लम्हे वो मोड़ 
जहाँ हम आखिरी बार मिले थे 
सोचता हूँ जुदाई ही ज़रिया था मिलने का 
हम चलते रहे थे दरिया के दो किनारों जैसे 
साथ साथ मगर इक दूजे से जुदा जुदा 
मिलकर समंदर में ही शायद हम मिल सकें 
नाशाद तब ही हम साथ साथ चल सकें  


बुधवार, 16 नवंबर 2011


आवारा दोपहरें 

याद है अभी भी वो आवारा दोपहरें 
तेरी तलाश में वो आवारा दोपहरें 

हर मोड़ पर तेरी राह तकना 
हर आहट में तेरे आने का धोखा होना 
पर अगले ही पल दिल का बैठ जाना 
याद है अभी भी वो आवारा दोपहरें 

वो बेमतलब तेरी गलीयों से गुज़रना
वो तेरे इक नज़ारे के लिए घंटों ठहरना 
तेरी मुस्कान पर सारी थकान भुला देना 
याद है अभी भी वो आवारा दोपहरें 

मुझे याद है अभी भी वो आवारा दोपहरें 
कभी ना भूलेगी वो आवारा दोपहरें 
= नरेश नाशाद 



शनिवार, 10 सितंबर 2011


उठ कर चल दे जानिब-ए-मंजिल तू 

उठ कर चल दे जानिब-ए-मंजिल तू 
किसी ईशारे का इंतज़ार ना कर तू 
खुद ही तराश पहाड़ों में उसकी सूरत
किसी करिश्मे का इंतजार ना कर तू 

हर तरफ पथरीली राहें  ही मिलेगी
खुशनुमा राह का इंतजार ना कर तू 
बढा अपने हाथों को आस्मां की तरफ 
उसके आने का इंतजार ना कर तू  

लिख ले अपने हाथों में खुद अपनी किस्मत 
लकीरों को पढने का इंतज़ार ना कर तू
लिख कोई नई ग़ज़ल और पढ़ ले नाशाद 
शम्मां के जलने का इंतज़ार ना कर तू 

खुद ही रोशन हो सज जायेगी महफ़िल  
जब गूंजेगी तेरी आवाज़ हर तरफ 
ढूंढ कोई लाजवाब शेर औ ग़ज़ल नाशाद
किसी और के पढने का इंतज़ार ना कर तू  



गुरुवार, 8 सितंबर 2011

जिंदगी जैसे थम गई है 

आज अचानक लगता है मुझे जैसे 
किसी मोड़ पर आकर यादें ठहर गई 
इसी मोड़ पर मैंने कुछ खोया था 
दिल अन्दर ही अन्दर बहुत रोया था 
कोई जो चलता रहा सदीयों तक साथ हमारे 
इसी मोड़ से हमसे  दूर हो गया था 

जिसकी करीबी का अहसास मुझे हर पल था 
जिसका साया हर कड़ी धूप में मेरे सर था 
मेरी सांसें उसी के दम पर चलती थी 
मेरी जिंदगी उसी के इर्द-गिर्द रहती थी 
वो अहसास वो साथ बहुत दूर हो गया है 

दिल उसकी याद में बहुत रोया 
मगर आँखों से कोई कतरा बाहर नहीं आया 
आंसू जैसे जम चुके थे 
साँसें जैसे कहीं थम चुकी थी 
आज ऐसा लगता है नाशाद 
जिंदगी थम सी गई है 
राह तो है मगर मंजिल कहीं गुम गई है 
जिस्म है  मौजूद इस जहां में 
मगर रूह मेरी कहीं दूर हो गई है 
ऐ मेरे खुदा  मेरे जन्मदाता 
आपके बिना दिन छोटे और रातें लम्बी हो गई है 
मैं जिंदा हूँ मगर जिंदगी कहीं खो गई है 
नाशाद मेरी जिंदगी कहीं खो गई है 

( हमारे पापा की दूसरी पुण्यतिथि के अवसर पर उन्हें श्रद्धांजलि ) 



रविवार, 8 मई 2011

यह कविता मेरी मम्मी के चरणों में अर्पित कर रहा हूँ. मेरी मम्मी जिनकी ऑंखें हम तीनों भाईयों के लिए सपने देखती हैं. जिनका दिल हमारे पूरे परिवार के लिए धडकता है. जिनकी मुस्कान हमें हर वक्त हिम्मत दिलाती है और यह कहती है कि जीवन में कभी हार मत स्वीकारना. जीतना ही जीवन है.

माँ

इस धरती पर भगवान का रूप है माँ
जीवन के इस सफ़र में ठंडी छाँव है माँ

माँ, दुखों की कड़ी धुप में
शीतलता का एहसास है
माँ, अगर हमारे पास है तो
सारे जहाँ की खुशीयाँ पास है

माँ के आँचल में जैसे
हर फूल की खुशबू है
माँ की गोद में जैसे
हर उलझन का हल है

माँ की मुस्कान में जैसे
खुदा खुद मुस्कुराता है
माँ के दुलार से जैसे
हर चमन में बहार है

माँ की ममता से जैसे
सारी दुनिया पलती है
माँ की आँखों में जैसे
तीनों लोकों का ज्ञान है

इन आँखों में कभी आंसू ना आए
इन होठों से कभी मुस्कान ना जाए
इस आँचल पर कोई आंच ना आए
चाहे हमसे हर ख़ुशी छिन जाए

माँ से दूर कभी कोई लाल ना जाए
चाहे सारी दुनिया से साथ छूट जाए
= नरेश नाशाद


सोमवार, 18 अप्रैल 2011

मेरा गाँव कहीं खो गया है 


कभी कभी मुझे लगता है जैसे 
सुख तो मिला पर चैन खो गया है 

दोस्त तो मिलें है हमें बहुत मगर 
अपनापन जैसे कहीं खो गया है 

हर ऐश-ओ-आराम मिल गए हमें 
मगर मन जैसे कहीं भटक गया है 

दौलत शोहरत बहुत मिली सभी को 
इंसान का मोल लेकिन घट गया है
शहरों की चकाचोंध में ऐ नाशाद 
मेरा गाँव कही जैसे खो सा गया है 
मेरा गाँव कहीं जैसे खो सा गया है 


शनिवार, 9 अप्रैल 2011

ये ना जाने कोई 

कितना लम्बा ये सफ़र है
ये ना जाने कोई
कहाँ तक अब ये डगर है
ये ना जाने कोई

कौन देखेगा कल की सहर
ये ना जाने कोई
किसकी है ये आखिरी शब
ये ना जाने कोई

कब तक हवाएं साथ है
ये ना जाने कोई
कब तक सूरज में आग है
ये ना जाने कोई

कब तक चाँद में शीतलता है
ये ना जाने कोई
कब तक सितारों का कारवाँ है
ये ना जाने  कोई

कब तक कदमों की चाल है
ये ना जाने कोई
कब तक सभी को ये आस है
ये ना जाने कोई

कब तक हम यहाँ है
ये ना जाने कोई
कब तक ये जहां है
ये ना जाने कोई

कब तक  दुआओं में असर है
ये ना जाने कोई
कब तक उसकी हम पर नज़र है
ये ना जाने कोई