रविवार, 9 मई 2010

यह कविता मेरी मम्मी के चरणों में अर्पित कर रहा हूँ. मेरी मम्मी जिनकी ऑंखें हम तीनों भाईयों के लिए सपने देखती हैं. जिनका दिल हमारे पूरे परिवार के लिए धडकता है. जिनकी मुस्कान हमें हर वक्त हिम्मत दिलाती है और यह कहती है कि जीवन में कभी हार मत स्वीकारना. जीतना ही जीवन है. 
     
              माँ 
इस धरती पर भगवान का रूप है माँ 
जीवन के इस सफ़र में ठंडी छाँव है माँ




  















माँ, दुखों की कड़ी धुप में
शीतलता का एहसास है
माँ, अगर हमारे पास है तो
सारे जहाँ की खुशीयाँ पास है

माँ के आँचल में जैसे
हर फूल की खुशबू है
माँ की गोद में जैसे
हर उलझन का हल है

माँ की मुस्कान में जैसे
खुदा खुद मुस्कुराता है
माँ के दुलार से जैसे
हर चमन में बहार है




















माँ की ममता से जैसे
सारी दुनिया पलती है
माँ की आँखों में जैसे
तीनों लोकों का ज्ञान है

इन आँखों में कभी आंसू ना आए
इन होठों से कभी मुस्कान ना जाए
इस आँचल पर कोई आंच ना आए
चाहे हमसे हर ख़ुशी छिन  जाए
माँ से दूर कभी कोई लाल ना जाए
चाहे सारी दुनिया से साथ छूट जाए


मंगलवार, 4 मई 2010

ढूंढता हूँ 

हो मंजिलें ही मंजिलें
ऐसा सफ़र ढूंढता हूँ
जो चले हर जनम साथ
ऐसा हमसफ़र ढूंढता हूँ

जहाँ खुशीयाँ बसती हो
ऐसा  शहर  ढूंढता हूँ
जहाँ इंसान बसते हो
ऐसा जहां ढूंढता हूँ

जिसमे बहारें ही बहारें हो
ऐसा मौसम ढूंढता हूँ
जिससे हर कोई झूम जाए
ऐसी खुशीयाँ ढूँढता हूँ

जो कर दे दिल को घायल
ऐसी नज़र ढूंढता हूँ
जिस पर खुद को वार दूँ
ऐसी मुस्कान ढूंढता हूँ

बिन पिए ही आ जाए नशा
ऐसी मय ढूंढता हूँ
जिस पर हर परवाना जल मरे
वो शम्मां ढूंढता हूँ

जो सारे जहाँ पर बरसे
ऐसा सावन ढूंढता हूँ
जिस पर दुनिया है कायम
वो उम्मीद ढूंढता हूँ

नामुमकिन है फिर भी
मैं ज़िन्दगी ढूंढता हूँ
आज तक जो मिला नहीं
मैं उस खुदा को ढूंढता हूँ

सोमवार, 3 मई 2010

बा : एक श्रद्धांजलि
( श्रीमती सीता देवी बोहरा )
स्वर्गारोहण  : ३ मई १९८१ 

खुद को भुला सकता हूँ पर आपको भुला सकता नहीं
एक पल भी आपकी याद के बिना मैं रह सकता नहीं

हमारी बा को हमसे दूर हुए आज पूरे उन्नतीस वर्ष हो रहे हैं. बा आज भी हमारे परिवार के साथ है. हमारे दिलों में समाई हुई है. वो आज भी हमें उसी तरह राह दिखलाती है जिस तरह वो हमें पहले दिखलाती थी. उनका वो निस्वार्थ प्रेम आज भी भुलाये नहीं भूलता. वो हरेक के लिए दिल में दर्द और मदद की चाह हमें आज भी रह रहकर याद आती है. हमारा परिवार आज भी जोधपुर में हमारे तमाम रिश्तेदारों और अन्य पहचान वालों में उनके नाम से ही जाना जाता है. उन्होंने हमें सभी से प्रेम के साथ रहना सिखाया और यह भी शिक्षा दी कि बुरा वक्त हर किसी की जिंदगी में आता है और एक सच्चा इंसान वो ही होता है जो किसी की संकट की घड़ी में मदद करे और उसके साथ खड़ा रहे.
बा श्री कृष्ण भगवान के बालकृष्ण रूप की नियमित पूजा करती थी. श्रीमद भगवत कथा वो लगभग पूरे वर्ष पढ़ती थी. उन्होंने अपना पूरा जीवन हमारे परिवार को बनाने और अन्य परिवारों के मध्य एक उदहारण बनाने में लगा दिया. हमारे पापा जोधपुर में हमारी पुष्करणा ब्राह्मण जाति में पहले चार्टर्ड  अकाऊंटेंट  बने थे. पापा की अथक मेहनत के साथ बा का त्याग और प्रेम भी उसी तरह से जुड़ा हुआ था. हमारे परिवार की वो एक ऐसी प्रेरणा स्त्रोत थी कि उनकी कमी हमें आज भी महसूस होती है.  
मेरी बा ( मेरी दादी माँ ) मेरा सब कुछ थी. मेरा वजूद उन्ही से था. जिस दिन बा ने यह दुनिया छोड़ी मेरे लिए सब कुछ ख़त्म सा हो गया. कुछ दिनों के लिए मेरे लिए जैसे वक़्त रुक गया था. उस वक्त  मैं मात्र सत्रह वर्ष का था. मैं ये तय नहीं कर पा रहा था कि अब मैं क्या करूंगा ? मैं कैसे जीयूँगा? मेरी ज़िन्दगी किस तरह आगे बढ़ेगी? मेरे उस वक्त तक के जीवन पर बा का इतना गहरा प्रभाव था कि मैं अपने आप कुछ नहीं करता था. मेरे हर कदम पर बा का प्रभाव रहता था. आज बा को गए हुए उनतीस बर्ष हो चुके हैं लेकिन मैं आज भी बा की कमी उतनी ही महसूस करता हूँ जितनी मैंने बा के स्वर्गारोहण के दिन महसूस की थी. मैं आज भी उन्हें अपने साथ पाता हूँ . उनकी उपस्थिति महसूस करता हूँ. कोई माने या ना माने लेकिन जब भी मैं अपने जोधपुर के पैतृक मकान में जाता हूँ  मुझे ना जाने क्यूँ ऐसा लगता है कि मुझे उनकी पदचाप सुनाई दे रही है. वो धीरे से कुछ कह रही है लेकिन शायद मैं सुन नहीं पा रहा हूँ. जब भी मैं जोधपुर जाता हूँ और उस मकान में प्रविष्ट होता हूँ मुझे अनायास ही मेरी आँखों में ना जाने कहाँ से आंसू आ जाते हैं और ऐसा लगने लगता है कि जैसे बा को गए हुए ज्यादा वक्त नहीं हुआ है, मैं शायद उनकी कमी महसूस कर रहा हूँ  और ..........
बा एक निस्वार्थ प्रेम से ओतप्रोत महिला थी. वो बहुत ही निडर थी और स्पष्टवादिता में विश्वास रखती थी. वो हर किसी को अपने घर का सदस्य समझ कर उसकी मदद करती. जोधपुर में जिस गली में हमारा घर है , उस गली में स्थित हर घर का प्रत्येक सदस्य बा से उम्र के हिसाब से अलग अलग रिश्ते से बंधा हुआ था. कोई बा को बुवा कहता तो कोई मौसी . कोई भोजी कहता तो कोई बहन. बा के दिल में सभी के लिए सामान रूप से प्रेम था , दर्द था और दया भी थी. हमारी उस गली में हर घर में बा का एक अलग ही प्रभाव था. किसी भी घर में कोई छोटी सी कहासुनी भी हो जाती तो बा की जरुरत उन्हें महसूस होती और बा के समझाने से सब कुछ सामान्य हो जाता. बा बिना किसी लाग लपेट के हर किसी को जो भी गलत हो रहा है वो साफ़ साफ शब्दों में कह देती और अपनी राय भी दे देती जिससे कि हर समस्या सुलझा जाए.
मुझे आज भी इस बात का दुख है कि जिस वक्त मुझे बा की सबसे अधिक आवश्यकता थी उसी वक्त भगवान ने उन्हें मुझसे छीन  लिया. मैं आज जहां हूँ  मैं शायद इस से कई कदम आगे होता अगर बा का साथ और मार्गदर्शन कुछ समय और मिला होता. लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. मैं आज यह स्वीकार करता हूँ कि मेरा असली रूप ; मेरी वास्तविक खूबीयां बा के जाने के साथ ही ख़त्म हो गई और एक अधुरा व्यक्तित्व पैदा हुआ जो शायद आज तक अधुरा ही है.
बा में जो मैंने प्रेम-भाव देखा जैसा बहुत ही कम लोगों में देखने को मिलता है. हम तीनों भाइयों को बा ने बहुत स्नेह दिया जो कि हर दादी अपने पौत्रों को देती है. लेकिन बा के प्रेम में जो ममत्व था उसकी बात ही कुछ और थी. प्रेम के साथ साथ शिक्षा और अनुशासन , सब कुछ  बराबर हिस्सों में मिलता था. बा ने हमारे परिवार में एक परंपरा शुरू की - वो यह कि बहु एक बेटी से भी बढ़कर होती है. अपना भरा-पूरा परिवार छोड़कर आती है और अपना सारा जीवन इस नए घर को बसाने और संवारने में  लगा देती है. हमारे परिवार में आज भी यह परंपरा कायम है और हमेशा रहेगी.
मैं जब जब बा के साथ होता था तब तब मुझे ऐसा लगता था जैसे मेरा हौसला बहुत बढ़ा हुआ है . जब मैं कुछ बड़ा हो गया तो मेरे दोनों छोटे भाइयों को बा अपने बिस्तर पर दायें-बाएं सुलाती और मुझे कहती कि अब तू बड़ा हो गया है इन्हें मेरे पास सोने दे. बा ने मुझे यह अहसास बहुत जल्दी दिला दिया और बहुत छोटी उम्र में दिला दिया कि मैं अब बड़ा हो रहा हूँ और मुझे अपने कर्तव्यों का अहसास अभी से हो जाना चाहिये. बा के असामयिक स्वर्गारोहण ने कुछ अरसे तक मेरी ज़िन्दगी में एक ठहराव और उलझाव ला दिया था लेकिन जब मैंने उस समय को पार किया तब मुझे अचानक ही यह अहसास होने लग गया था कि अब मुझे अपने आप को बहुत बदलना है. मुझे याद है इस असहनीय घटना के तीन-चार साल के बाद मैं अपनी उम्र से बहुत बड़ा हो गया था और मेरी सोच और मेरे विचार एकदम बदल गए थे. उस दौरान मैंने बहुत कुछ खोया लेकिन खुद को बदलने में जो कामयाबी मिली वो ही शायद सबसे बड़ी उपलब्धि थी.
बा के साथ मैंने १९७९ से १९८१ के बीच जो वक्त गुजारा उस वक्त में बा ने मुझे बहुत ज्ञान दिया. एक परिवार में बड़े बेटे / भाई का क्या कर्त्तव्य होता है  ये सब बताया. पूरे परिवार को कैसे एक रखा जाता है . कैसे समस्याओं को सुलझाया जाता है . कैसे त्याग किया जाता  है. कैसे समय समय पर खुद को भुलाकर सभी को याद रखा जाता है. उन्होंने ही मुझे हमेशा खुश रहने का  यह मन्त्र दिया कि अगर हमें हमेशा खुश रहना है तो हमें सभी को खुश रखना चाहिये. सभी के हँसते खिलते चेहरे देखने से ही हमें खुशीयाँ मिलेगी और हम हमेशा खुश रहेंगे और हमें हमारा दुःख कभी नज़र ही नहीं आयेगा. खुद के ग़मों को भुलाने का यही एकमात्र और सफल उपाय है. जिस दिल ने सभी को इतना प्यार दिया उस दिल ने ३ मई १९८१ के दिन धडकना बंद कर दिया. एक अध्याय जैसे समात्प हो गया लेकिन बा की प्रेम पताका हमारा परिवार आज भी संभाले हुए हैं और आनेवाली पीढीयाँ भी इसी तरह संभाले रहेगी.

इश्क ही इबादत है खुदा की  बस इश्क ही इश्क कीजै 
नाशाद ता-उम्र बस इश्क ही लीजै  और इश्क ही दीजै 

मैंने उन्हें श्रद्धांजलि स्वरुप एक कविता लिखी है . जो उन्हें समर्पित कर रहा हूँ .

          बा 

बा, मुझे अब भी आपकी याद बहुत आती है
वो कभी हंसाती है  तो कभी रुलाती है
अक्सर जागता हूँ रातों को 
वो मुझे आकर सुलाती है 

जब भी आँखों में आते हैं आंसू 
वो आकर उन्हें पौंछ जाती है
जब भी दिल नहीं लगता है मेरा
वो पुरानी बातों से दिल बहलाती है




जब भी पाता हूँ खुद को किसी चौराहे पर 
वो आकर मुझे राह दिखलाती है
जब टूट जाता हूँ टुकड़े टुकड़े होकर 
वो मुझे मेरे वचन याद दिलाती है

जब भी पाता हूँ अपने जिस्म से जान जुदा 
वो मुझे जिंदा होने का अहसास दिलाती है
दूर नहीं हूँ मैं तुमसे, हर वक्त हूँ तुम्ही में समाई
यह बात हर वक्त वो मुझसे कह जाती है

सब को खुश रखकर खुश रहना है
आपकी इस सीख को अक्सर याद दिलाती है
बहुत दूर तक अभी चलना है 
वो हर वक्त मुझे यह अहसास दिलाती है 

आपकी भक्ति आपकी शक्ति आपकी स्फूर्ति
मुझे रह रहकर याद आती है
किस तरह त्याग से यह घर बसाया
यह बात मुझे आश्चर्यचकित  कर जाती है

बा, मुझे अब भी आपकी याद बहुत आती है
कभी हंसाती तो कभी रुलाती है

बा के प्रेम-सूत्र में बंधा हमारा परिवार ( १९७२ )




( पहली पंक्ति = बाएं से -  हमारे पापा , हमारी मम्मी 
  दूसरी पंक्ति = बाएं से - मेरा छोटा भाई धर्मेश ; हमारे बाऊजी {दादाजी}, 
                               मैं , बा और मेरा सबसे छोटा भाई राजेश  

रविवार, 2 मई 2010

वो मुझसे दूर हो गया

देखते ही  देखते  वो मुझसे  दूर हो गया
एक ही पल में सदीयों का फासला हो गया

कल तक जो था अपना और था हमसाया भी
देखते ही देखते वो आँखों से ओझल हो गया

जिसे लेकर ज़िन्दगी के ख्वाब  बुने थे हमने
देखते ही देखते वो खुद एक ख्वाब सा हो गया

जो कभी था हमनशीं, हमखयाल और हमसफ़र
देखते ही देखते वो मेरे लिए एक बेगाना हो गया

जिसे देखे बिना  एक पल  भी  दिल को करार ना था
देखते ही देखते उससे बिछुड़े अब एक ज़माना हो गया


शुक्रवार, 30 अप्रैल 2010















मैं फिर से बनना चाहता हूँ

मुझे टूट कर बिखर जाने दो
मैं फिर से बनना चाहता हूँ

मैं फिर से बचपन में जाना चाहता हूँ
दादा की ऊंगली पकड़कर चलना चाहता हूँ
दादी की गोद में सिर रखकर सोना चाहता हूँ
पापा की डांट खाकर कुछ सीखना चाहता हूँ
माँ के आँचल में छुपकर सब गम भुला देना चाहता हूँ
मैं फिर से बनना चाहता हूँ
मैं फिर से बनना चाहता हूँ




मैं फिर से बचपन की गलीयों से गुजरना चाहता हूँ
दोस्तों के साथ खेलना झगड़ना चाहता हूँ
सावन की फुहारों में भीगना चाहता हूँ
पेड़ों पे बंधे झूलों में झुलना चाहता हूँ
छोटे भाईयों को अपना रौब दिखाना चाहता हूँ
लाला की दूकान से कुछ चुराकर भागना चाहता हूँ
मैं फिर से बनना चाहता हूँ
मैं फिर से बनना चाहता हूँ












रेत के टीलों पर चढ़ना चाहता हूँ
स्कूल से नजरें चुराना चाहता हूँ
मास्टरजी की डांट खाकर रोना चाहता हूँ
खेतों में बेमतलब दौड़ना चाहता हूँ
गाँव के मेलों में घूमना चाहता हूँ
जिंदगी के झमेलों से दूर भागना चाहता हूँ
मैं फिर से बनना चाहता हूँ
मैं फिर से बनना चाहता हूँ

जो भी अधूरे रह गए थे वे काम पूरे करना चाहता हूँ
जो भी रह गई मुझमे कमीयां उन्हें दूर करना चाहता हूँ
दादा-दादी माँ-पिताजी के सपने पूरे करना चाहता हूँ
अधुरा लग रहा है जीवन उसे पूरा करना चाहता हूँ
मैं फिर से बनना चाहता हूँ
मैं फिर से बनना चाहता हूँ

शनिवार, 24 अप्रैल 2010

महक गई हवा 


ना जाने किस की याद से महक गई हवा
मेरे आँचल  को  फिर  से  छेड़  गई हवा 


सावन की घटा को जैसे लेकर आती है हवा
पयाम फिर से किसी का लेकर आई है हवा


मैं भी थी गुमसुम   चुपचाप सी थी हवा 
ज़िक्र किसी का आते ही  मचल गई हवा


दिल था खोया खोया और कहीं गुम थी हवा
बेसाख्ता किसी की याद बन बहने लगी हवा


एक गाँव से  दूसरे  गाँव  तू  तो बहती है हवा 
मुझे भी अपने संग पी के गाँव उड़ा ले चल हवा 





शुक्रवार, 23 अप्रैल 2010

याद आऊँगा मैं 

जितना तुम भुलाना चाहो 
उतना ही याद आऊँगा मैं
सोने ना दूंगा चैन से कभी
तेरे हर ख्वाब में आऊँगा मैं

जब भी बहारें आयेंगी
हर फूल में नज़र आऊँगा मैं
सावन की भीगी फुहारों में
एक मीठी अगन लगाऊंगा मैं

चाहे जितनी राहें बदल लो
हर मोड़ पर नज़र आऊँगा मैं
चाहे अपना लो किसी गैर को
हर चेहरे में नज़र आऊँगा मैं

जब भी देखोगे तस्वीर मेरी
तुम्हारी साँसें मह्काऊँगा मैं
जब रातों में लेटोगे छत पर
चाँद में भी नज़र आऊँगा मैं

मौहब्बत की है मैंने तुमसे
तुम्हें ही अपनाऊँगा मैं
नहीं आसान "नाशाद" को भुलाना
हर सांस में याद आऊँगा मैं

मंगलवार, 20 अप्रैल 2010

वो गलीयाँ हमें बुलाती हैं

वो गलीयाँ हमें बुलाती हैं
जहाँ हमने बचपन गुजारा था

वो बचपन हमें पुकारता है
जिसमे हम ने खूब मेले देखे थे

वो मेले हमें लुभाते हैं
जिनमें हम दोस्तों के साथ घूमे थे

वो दोस्त हमें याद करते हैं
जिनके साथ महफिलें सजाई थीं



वो महफ़िलें हम बिन सुनी हैं
जिनमें हम ने कई गज़लें पढी थीं

वो गज़लें पढ़े जाने को तरसती हैं
जिनमे कोई नाम छुपा हुआ था

कोई हमें आज भी चाहता है
जिसे हम दरीचे में खड़ा पाते थे

वो दरीचे आज भी खुले हैं
जिनमे खड़ा कोई आवाजें देता था

वो आवाजें आज भी पीछा करती हैं
जिनसे गलीयाँ गुलज़ार रहती थीं





वो गलीयाँ आज भी हमें बुलाती हैं
शायद कोई आज भी हमें याद करता है
कोई आज भी दरीचे से पुकार रहा है
"नाशाद" शायद कोई बुला रहा है
शायद कोई इंतज़ार कर रहा है
कोई आज भी ......
कोई आज भी .....
 

रविवार, 18 अप्रैल 2010

सब कुछ तेरे नाम किया

अपने सपने
अपनी नींदें
अपनी मंजिल
अपनी राहें
सब कुछ तेरे नाम किया

अपनी खुशीयाँ
अपनी चाहतें
अपने ख्वाब
अपनी रातें
सब कुछ तेरे नाम किया

तेरे वादे
मेरी दुआएं
तेरे ख़त
तेरी तस्वीरें
सब कुछ तेरे नाम किया

अपनी मौहब्बत
अपना दिल
अपनी किस्मत
अपन जीवन
सब कुछ तेरे नाम किया

शनिवार, 17 अप्रैल 2010

दूरीयाँ ना कम हो सकी 

चाहा तुमको हमने बहुत मगर
ये चाहत पूरी ना हो सकी
ख्वाब तेरे देखे हमने मगर
उनकी ताबीर ना मिल सकी

खुद को मिटा डाला मगर
दूरीयाँ ना कम हो सकी
आंसू सूख गए मगर
सिसकियाँ ना कम हो सकी

ख्वाब टूट गए मगर
उम्मीदें ना कम हो सकी
तुम से ना मिल सके मगर
मौहब्बत ना कम हो सकी




तुम ना समझ सके हमें
गलतफहमीयाँ ना दूर हो सकी
दिल में तो था बहुत कुछ मगर
जुबां ही बस कुछ कह ना सकी

तुम को मनाया बहुत मगर
कोशिशें ना सफल हो सकी
तुम को चाहा पाना हमने मगर
ये आरज़ू ना पूरी हो सकी


तुम्हें मान लिया खुदा हमने
पर बंदगी क़ुबूल ना हो सकी
सदायें तो दीं तुम को बहुत
पर तुम तक कभी ना पहुँच सकी

नाशाद रहे इस उम्मीद में
वो लौट आयेंगे एक दिन
उम्र गुज़र गई मगर
हिज्र की घडीयाँ ना ख़त्म हो सकी

शुक्रवार, 16 अप्रैल 2010

ना तुम जानो ना मैं जानू

कैसे आते हो तुम मेरे ख्वाबों में 
ना तुम जानो ना मैं जानू 
कैसे बस गए हो तुम मेरे दिल में 
ना तुम जानो ना मैं जानू 

किस तरह बंध गया ये बंधन
ना तुम जानो ना मैं जानू
किस तरह हम हार गए दिल
ना तुम जानो ना मैं जानू

किस तरह मिल गई निगाहें
ना तुम जानो ना मैं जानू
किस तरह मिल गई दो राहें
ना तुम जानो ना मैं जानू

कैसे थामा मैंने तेरा आँचल
ना तुम जानो ना मैं जानू
कैसे माना तुमने मुझे साजन
ना तुम जानो ना मैं जानू

कैसे धूप लगने लगी है छाँव
ना तुम जानो ना मैं जानू
कैसे हिज्र भी लगने लगा मिलन
ना तुम जानो ना मैं जानू 


बुधवार, 14 अप्रैल 2010

मुझ से मौहब्बत कर ले 

खुद को आज़ाद तू कशमकश-ए-जिंदगी से कर ले
भुला दे इस जहाँ को और मुझ से मौहब्बत कर ले

दूर बहुत है मंजिल और कठिन है बहुत रहगुज़र भी
मंजिल खुद ही मिल जायेगी तू मुझे हमसफ़र कर ले

काली लम्बी रातों में यादों के चिराग भी काम ना आयेंगे
जला ले मेरी मौहब्बत के चिराग रोशन अपनी राहें कर ले

भर दूंगा हर रंग जिंदगी का  तेरी महफिलें सज जायेंगी
खुद को बना  ले  तू  शम्मां और  मुझे तू परवाना कर ले

जो गुज़र गए हैं लम्हे "नाशाद" वो ना कभी लौट कर आयेंगे
ढूंढ मुझमे खुशनुमा लम्हा  खुद को ख़ुशी से तरबतर कर ले   

मंगलवार, 13 अप्रैल 2010

मेरी तरह चाहेगा कौन 

दूसरों की महफिलों में जानेवाले
मेरी नज़रों से तुम्हें देखेगा कौन

किसी और को दिल में बसाने वाले
मेरी  तरह से  तुझे  चाहेगा कौन

मुझ से बेखबर होकर सोनेवाले
मेरी तरह ख्वाबों में आयेगा कौन

मिल जायेंगे तुम्हें कई हमसफ़र लेकिन
मेरी तरह राहों में फूल बिछाएगा कौन

हर तरफ मौहब्बत के दुश्मन है फैले हुए
ज़माने की नज़रों से तुम्हें बचाएगा कौन

अनजाने लोग है  फरेब है हर मोड़ पर
ऐसे सफ़र में सही राह दिखायेगा कौन

आयेंगे तेरी महफिलों में सुखनवर बहुत अच्छे
"नाशाद"  की तरह लेकिन ग़ज़ल  पढ़ेगा कौन 

सोमवार, 12 अप्रैल 2010


बेटीयाँ 

हर घर की रौनक होती है बेटीयाँ
हर घर की  शान  होती है बेटीयाँ

खुद का घर छोड़कर
सभी अपनों को छोड़कर
दूसरों के घरों को
बसाती संभालती है बेटीयाँ





अपने आंसुओं को
अपनी आरजुओं को
मन ही मन में हरदम
दफ़न करती है बेटीयाँ

भेदभाव देखती है
अत्याचार सहती है
फिर भी चेहरे पर शिकन
नहीं आने देती है बेटीयाँ

सबके गम सहती है
सबके दुःख हरती है
खुद के लिए कभी भी
कुछ नहीं मांगती है बेटीयाँ




हर किसी को चाहिये
इन्हें घर की इज्जत समझें
इन्हें खुदा का वरदान समझें
बहुत ही किस्मत वालों को
मिलती है बेटीयाँ



कितना सूनापन लगता है
घर अधुरा सा लगता है
उन्हें हर कोई जाकर पूछे
जिनके नहीं होती बेटीयाँ


हर घर की रौनक होती है बेटीयाँ 
हर घर की  शान  होती है बेटीयाँ 


मंजिल मिल गई हो जैसे

वो  मुझे देख रहे हैं  कुछ ऐसे
उन्हें मंजिल मिल गई हो जैसे 

उनकी तस्वीर लग रही है कुछ ऐसे
बस मुझसे अभी बोल पड़ेगी वो जैसे

उसने मेरा हाथ थाम लिया कुछ ऐसे
जनम जनम का हमारा साथ हो जैसे

बरसों बाद उसे देख लगा कुछ ऐसे
पहली बार ही हम मिल रहे हों जैसे

दिल में है बहुत बातें पर वो खामोश है कुछ ऐसे
ज़जीरों ने उनकी जुबां को जकड लिया हो जैसे

उनकी गलीयों की तरफ कदम बढे कुछ ऐसे
हम अपने  ही घर की तरफ जा रहे हों जैसे

"नाशाद" ना आये महफिलों में तो लगे कुछ ऐसे
शाम-ए-ग़ज़ल है पर शम्मा ही ना जली हो जैसे   

रविवार, 11 अप्रैल 2010

वो मेरा हो जाएगा

देखना एक दिन  वो  भी मेरा हो जाएगा
मेरे घर का पता उसका पता हो जाएगा

आज चुरा रहा है नज़र पर देखना एक दिन
वो मुझे देखकर  शरमायेगा  मुस्कुराएगा

आज कर रहा है वो मुझसे नफ़रत पर देखना
मेरी याद में तड़पता फिर वो भी नजर आयेगा

इस कदर  छा जाएगा  मेरा  भी जादू उस पर
जागती आँखों से मेरे सपने देखने लग जाएगा

चल रहा है आज वो अकेला अपने ही रास्ते पर
एक दिन शामिल वो मेरे कारवां में हो जाएगा

उसको बसा लूँगा "नाशाद" दिल में इस कदर
देखना वो हो जाएगा मैं और मैं वो हो जाऊंगा


शनिवार, 10 अप्रैल 2010

तेरी निशानीयाँ 

हर तरफ फ़ैली है तेरी ही निशानीयाँ
मेर प्यार की निशानीयाँ

वो ख़त जो पहले पहल
तुमने मुझे लिखे थे
वो तस्वीरें जो मैंने चुपके से
तुमसे चुरा ली थी
वो बातें जो अक्सर तुम
मुझसे करती रहती थी
वो खुशबू जो हमेशा
तुमसे पहले आ जाती थी
वो सुकून जो तुम्हारी
एक झलक से मिलता था
वो पहला एहसास जब तुमने
मेरे बालों को छुआ था
वो यादगार लम्हा जब तुमने
मेरा प्यार कुबूला था
वो तड़प जो तेरे जाने के बाद
मुझे महसूस होती थी
वो तेरे ख्वाब जो अक्सर
मुझे रातों में आते थे


हर तरफ फ़ैली है तेरी ही निशानीयाँ 
मेर प्यार की निशानीयाँ 

मेरे चारों ओर फ़ैली तेरी खुशबु 
हर तरफ गूंजती तेरी आवाज़ 
तुम्हारे क़दमों की मीठी आहट 
रह रहकर जैसे कह रही है 
तुम अभी अभी शायद गई हो 
नहीं ; नहीं 
रह रहकर यह कह रही है
तुम बस अभी आनेवाली हो
बस अभी आनेवाली हो  


शुक्रवार, 9 अप्रैल 2010

अभी बाकी है 


सूखे हुए  उन फूलों में  अभी भी  खुशबूएं बाकी है 
जिनमे रखे थे फूल वे किताबें खुलना अभी बाकी है


लौट आया सावन  पर घटाओं का  छा जाना  अभी बाकी है 
बरस रही है घटाएं पर तेरी जुल्फों का बिखरना अभी बाकी है


ढल गई है शाम पर तेरी यादों का आना अभी बाकी है 
दिल लगा है डूबने पर अश्कों का आना अभी बाकी है 


आ गई है बहारें मगर कलियों का चटकना अभी बाकी है 
खिलने लगे है फूल मगर  तेरा  मुस्कुराना  अभी बाकी है


मिल तो गई हैं राहें मगर मंजिल तक पहुंचना अभी बाकी है 
आ गई तेरी गलीयाँ मगर तेरा दरीचा खुलना अभी बाकी है


थक गया है मुसाफिर मगर उम्मीदों का टूटना अभी बाकी है
ढलती जा रही है शाम  मगर सूरज का  डूबना अभी बाकी है  


हो गए हैं ज़ख्म बहुत पुराने मगर उनका भरना अभी बाकी है 
दिल में लगी है  बहुत चोटें  मगर उसका टूटना अभी बाकी है 


तोड़ लिए  हों लोगों  ने   नाते  मगर  तेरा  साथ अभी बाकी है
आजमाए सभी दोस्त मगर रकीबों को आजमाना अभी बाकी है

सज संवर  गईं हैं  महफिलें  मगर  तेरा आना अभी बाकी है 
पढ़ लिए सभी ने शेर मगर "नाशाद" का पढना अभी बाकी है       


तू और ........


तेरी मुस्कान से होती है  सुबहें 
तेरी खुशबु को तरसती है दोपहरें


तेरे नाम से महकती है शामें 
तेरी यादों से  सजती है रातें  


तेरे  क़दमों से चलता है ज़माना 
तेरी अदाओं से बदलते हैं मौसम 


तेरी हया से अदब है ज़माने में 
तेरी आँखों से नशा है पैमाने में 


तेरे आने से सजती है महफ़िलें 
तेरे इशारे से जलती है शम्में 


तेरी आवाज से  शायरी है जिंदा
तेरे होने से ही "नाशाद" है जिंदा 





गुरुवार, 8 अप्रैल 2010

जिंदगी जैसी जिंदगी 


वो जिंदगी ही शायद जिंदगी जैसी लगती थी 
हर तरफ ख़ुशी ही ख़ुशी औ रौनकें होती थी 


दिन भी थे सुहाने और रातें भी हसीन होती थी 
तेरे साथ जब रहगुज़र एक खुशनुमा सफ़र थी


फरिश्तों जैसे लोग थे मौहब्बत सबके दिल में थी 
नफरतें जैसे कोई किसी दूसरे जहाँ में बसती थी


तेरी खुशबू  से गलीयाँ जैसे गुलज़ार रहती थी
हर  महफ़िल तेरी शिरकत से रोशन रहती थी 


खयाल हवाओं में उड़ते मंजिलें राहें देखती थी 
जुबां खामोश रहती थी  निगाहें बात करती थी


बारिशों की बूंदें संगीत स्वर लहरीयाँ लगती थी 
सर्दीयों के सन्नाटों से दिलों में हूक सी उठती थी


तुम्हें  देखे बगैर हमारी जिंदगी अधूरी लगती थी 
नाशाद हर चेहरे में तुम्हारी सूरत ही दिखती थी